Monday, October 24, 2011

दिवाली के पटाखों की आग में झुलसता बचपन

किसी देश का विकास जिन अहम पहलुओं पर निर्भर करता है उनमें से एक सबसे अहम पहलू है वहां के बच्चों का विकास और उनकी स्थिति। बच्चे देश के आने वाले कल के भावी कर्णधार एवं प्रगति का आइना होते हैं। चाहे आज का समय हो या प्राचीन काल बच्चे देश के लिए अहम स्थान रखते हैं। भारत की बात करें तो एक विकासशील देश होने के नाते बच्चों की स्थिति पर ध्यान रखना जरुरी हो जाता है। लेकिन यह समय की विडम्बना है और बच्चों की बदनसीबी है जो इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी उन्हें अपनी जिन्दगी को जीने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। धूप भरी दोपहरी में सडकों के किनारे काम करते बच्चे हों या ढाबों या होटलों पर काम करते बच्चे हर जगह शोषण की एक जीती जागती तस्वीर पेश करते नजर आते हैं। चाय की दुकानों और ढाबों में तो बच्चे फिर भी मानसिक पीड़ा का कम शिकार होते हैं लेकिन जब बात खतरनाक कारखानों में काम करने की होती है तो मानसिक और शारीरिक पीड़ा दोनों ही अपने सबसे बड़े रुप में होते हैं।

दिवाली पास आने वाली है और हम सभी दिवाली के दिन पटाखों के दीवाने होते हैं। पटाखे जिसके बनने में कई हानिकारक रसायन इस्तेमाल होते हैं। लेकिन इन पटाखों को जलाते समय हम यह नही सोचते कि इन्हें बनाता कौन है। पटाखे के कारखानें में अधिकतर काम करने वाले श्रमिक बच्चे हैं। पटाखे बनाने वाली खतरनाक जगहों पर बच्चों का काम करना बेहद हानिकारक होता है। जरा सोच कर देखिए बारूद गंधक, कोयले का चूरा, कोबाल्ट, परमैग्नेट, एल्यूमिनियम की उपस्थिति में जहां बड़ों का भी दम घुटता हो वहां बच्चे किस तरह काम करते होंगे।

बच्चों की मजदूरी करने की वजह ज्यादातर दो ही होती है। एक तो गरीबी दूसरे बंधुवा प्रथा। दिवाली के मौके पर जहां सभी बच्चे पटाखे जला कर अपने बचपन का आनंद उठाते हैं वहीं कुछ बदनसीब बच्चे इन्हीं पटाखों को बनाते हैं. जनसंख्या विस्फोट, सस्ता श्रम, उपलब्ध कानूनों का लागू नहीं होना, बच्चों को स्कूल भेजने के प्रति अनिच्छुक माता-पिता कारण जो भी हो। पर सवाल यह उठता है कि यदि एक परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र आधार ही बाल श्रम हो तो कोई कर भी क्या सकता है।


इन पटाखा बनाने वाले कारखानों में काम करने वाले बंधुआ बाल मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उनसे दिन में 9-10 घंटे काम कराया जाता है और रात को उन्हें कमरे में कैदियों के समान बंद रखा जाता है। जो बच्चे भागने की कोशिश करते हैं उन्हें क्रूरतापूर्वक मारा जाता है। पटाखे बनाते समय बारुद के कण अक्सर हवा के माध्यम से बच्चों के फेफड़ों में पहुंच कर गंभीर बीमारियों को जन्म देते हैं। इन फैक्टरियों में काम करने वाले बच्चे उम्र से पहले ही दम तोड़ देते हैं। फैक्टरियों से निकलता जहरीला कोबाल्ट, गंधक और अन्य केमिकल के लंबे समय तक संपर्क में रहने की वजह से बच्चों पर इसका असर बहुत बुरा होता है। छोटे-छोटे बच्चे बायलररूम में जहरीले रसायनों को मिलाने का काम करते हैं। उन्हें जहरीले धुंए एवं भीषण गरमी का सामना करना पड़ता है। आग का खतरा तो सदा ही बना रहता है।

आजकल बच्चों का विशेषकर लड़कियों का यौन शोषण भी बड़े पैमाने पर हो रहा है. जहां भी बच्चे काम करते हैं यथा कारखाना, सड़क, मध्यमवर्गीय शहरी परिवार, बसस्टैंड आदि-आदि वहां उनका यौन शोषण भी होता है। वे अपना बचाव करने में बिलकुल असमर्थ होते हैं।

कानून के दो पहलू-

1. बाल श्रम (निषेध व नियमन) कानून 1986- यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 13 पेशा और 57 प्रक्रियाओं में, जिन्हें बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए अहितकर माना गया है, नियोजन को निषिद्ध बनाता है। इन पेशाओं और प्रक्रियाओं का उल्लेख कानून की अनुसूची में है।

2. फैक्टरी कानून 1948 यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है।15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी फैक्टरी में तभी नियुक्त किए जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है।

Wednesday, August 17, 2011

अन्ना में है दम, ‘वंदे मातरम्’

पिछले कुछ दिनों से अनशनों के दौर ने देश को आंदोलित कर दिया है। वहीं अन्ना हजारे की आवाज दबाने के लिए सरकार ने जो रास्ता अपनाया, उसे दमन और क्रूरता के अलावा और कुछ नहीं कह सकते। शासकीय अहंकार की पराकाष्ठा में और अपनी कमजोरियों के उजागर होने पर यह सरकार की बौखलाहट का ही नतीजा है। सरकार में बैठे जो लोग सांविधानिक जिम्मेदारियों की दुहाई दे रहे हैं, वे जाने-अनजाने देश के वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। अगर उन्हें संविधान और नैतिकता की इतनी चिंता होती, तो अन्ना हजारे से बातचीत और समाधान के लिए दूसरे रास्ते तलाशे जाते। मगर सरकार बचकाने तर्क के साथ खड़ी है। हास्यास्पद है कि सरकार इसे पुलिस की अपनी कार्रवाई कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है।

इस प्रक्रिया में छिपे खतरों को भी समझना चाहिए। आप नक्सलवाद की बात करते हैं, अलग-अलग जगहों पर उठती भड़कती आग को बुझाने में लगे रहते हैं, लेकिन यह जानने का प्रयास नहीं करते कि ऐसा क्यों होता है। आखिर कौन-सी बात लोगों के मन में आक्रोश भरती है? जवाब यही है कि अगर शांति और अहिंसा के मार्ग पर चल रहे लोगों को आप शासक होने के नाते डराएंगे, धमकाएंगे, उनका उपहास उड़ाएंगे, तो समय के साथ क्रांति का बिगुल बज जाता है। आखिर लोगों का रोष कहीं तो निकलेगा।

एक डरी हुई सरकार जिस तरह गलती पर गलती करती जाती है, वही सब देखने को मिल रहा है। जरूरी नहीं कि अन्ना और उनके साथियों की सारी मांगें जायज हों। मगर सरकार ने जिस तरह हठधर्मिता दिखाई, उससे अन्ना के पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ गई। सरकार की भूल है कि वह महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की भावना को नहीं समझ पा रही है।

अब कोई अन्ना हजारे से कहे कि चुनाव लड़ लो, आपको अपनी ताकत का पता लग जाएगा, तो फिर पूछना पड़ेगा कि क्या चुनाव ही सबसे बड़ी कसौटी है? अगर चुनाव की सफलता ही नैतिकता और आचरण का प्रतिबिंब होती, तो हमारी संसद और जनप्रतिनिधियों के आचरण में वह नजर आता।

अन्ना हजारे ने बार- बार गांधीजी के सिद्धांत और नैतिकता की बात दोहराई है। अपने आंदोलन में वह गांधीजी से आशीर्वाद लेते हुए दिख रहे हैं। साफ है कि हमारे देश में परिस्थितियां बदलती रहेंगी, समय के साथ बदलाव भी होते रहेंगे, लेकिन रास्ता वही रहेगा, जो गांधीजी समझा-बुझा गए हैं। सत्ता में बैठे हुए लोगों के लिए भी और उन लोगों के लिए भी जो शासन के सामने अपनी कुछ बातें कहना चाहते हैं। अन्ना का रास्ता विशुद्ध गांधीवादी है या नहीं, इस पर अपनी-अपनी राय हो सकती है। जितना हम अन्ना हजारे को जान पाएं हैं, उसमें हम यह कह सकते हैं कि मुद्दों पर और कई पहलुओं पर आप उनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं, पर उनकी नैतिकता पर शायद ही कोई सवाल खड़ा करे। वैसे अन्ना हजारे जिस लोकपाल बिल की बात कर रहे हैं, उसमें भी कुछ मामलों में असहमति हो सकती हैं, लेकिन जिस तरह उनकी बात को दबाने की कोशिश हुई, लोगों ने यही आशय लिया कि सरकार कुछ छिपाना चाहती है। मैं खुद अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के कुछ पहलुओं से असहमति रखता हूं। लेकिन अब जब बात उससे आगे जनाधिकार की आ गई है, तो स्वयं उनके आंदोलन से अपने को जोड़ते हुए देखता हूं।
गिरफ्तारी के समय अन्ना का यह सवाल ही वाजिब था कि आखिर उन्हें किस कारण गिरफ्तार किया जा रहा है। सरकार को उम्मीद रही होगी कि जिस तरह बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में आंदोलन को झेल लिया गया, वैसे ही अन्ना का आंदोलन भी शांत हो जाएगा। यही भूल है। सरकार ने अपने को आईने में नहीं देखा। सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि आम आदमी किस तरह और किन हालात में त्रस्त है, दुखी है। कितना अजब है कि लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं और सरकार और सत्ता पार्टी के जिम्मेदार लोग प्रेस कांफ्रेंस करके सस्ते जुमलों के साथ चुटकी लेते हैं। सरकार और सत्ता पार्टी को भी अपनी बात कहने का हक है, पर कोई बात किस तरह कही जाए इसकी मर्यादा होती है।

आज हमारे देश में कई समस्याओं का आधार ही यह है कि सरकारों ने उनसे निजात पाने के बजाय उस पर अपनी राजनीति खेली। सरकार कितनी भी चालाक क्यों न हो, यह सवाल तो उसके सामने खड़ा ही है कि देश के तमाम उग्र संगठनों से तो आप बातचीत का हाथ बढ़ाते हैं, टेबल पर बातचीत की पहल करते हैं, यह हक अन्ना हजारे को क्यों नहीं दिया? उन्हें अपनी बात कहने पर जेल में क्यों डाला?

दरअसल देश में अभी आंदोलन की भूमिका बनी है। अन्ना हजारे इस मामले में सफल हुए हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में एक आह्वान छेड़ दिया है। उनकी गिरफ्तारी के बाद लोगों में गहरा आक्रोश झलकता है। असल आंदोलन अभी शुरू करने की जरूरत है। इस माहौल में उन खतरों से भी सजग रहना होगा, जिसमें राजनीतिक दल अपना फायदा टटोलना शुरू करता है। राजनीतिक पार्टियों की तरफ से मिली निराशा से भी अन्ना हजारे के आंदोलन को एक मंच मिला है। लोग यह नहीं चाहेंगे कि इसका इस्तेमाल विपक्षी राजनीतिक पार्टियां अपने हितों में कर सकें। इससे आंदोलन और उसकी राह भटक सकती है। देखना होगा कि अन्ना की गिरफ्तारी के बाद उनके साथी इस आंदोलन को किस तरह आगे ले जाते हैं।

Thursday, August 4, 2011

भूमि अधिग्रहण की आग में जल रहा है किसानों का आसियाना

हम सभी के लिए ऐसा कोई भी दिन नहीं होता जब मोबाइल पर अपने सपनों का आशियाना खरीदने के लिए करीब आधे दर्जन संदेश न आते हों। ग्राहकों को लुभाने के लिए इन संदेशों में ऐसे विला उपलब्ध कराने का भी आग्रह किया जाता है जिसके साथ स्वीमिंग पूल और मिनी गोल्फ कोर्स की सुविधाएं है। ये खूबसूरत आशियाने जिस जमीन की धरातल पर खड़े किए गए होते है, मूलरूप से वे उन गरीब किसानों की जमीन है जिनकी बस एक ही गुस्ताखी है कि वे गरीब हैं।

देश के ज्यादातर गरीब किसान अपनी जमीन की सुरक्षा के लिए डर के साये में जी रहे हैं। वे सरकार और उद्योगों द्वारा भूमि अधिग्रहण किए जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। वहीं कर्नाटक के मंगलूर से लेकर गोवा तक, उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ से लेकर ग्रेटर नोएडा तक, पश्चिम बंगाल में सिंगुर से लेकर नंदीग्राम पंजाब में मानसा और हरियाणा में अंबाला से लेकर उल्लेवास तक ग्रामीण क्षेत्र विद्रोह की आग में सुलग रहे हैं। बड़ी संख्या में कृषि उपयोगी भूमि को गैर कृषि कार्यों में तब्दील किया जा रहा है। इतना ही नहीं 117 साल पूराने 1894 में बने भूमि अधिग्रहण कानून है जो वर्तमान परिवेश में कमजोर व खोखला साबित हो रहा है तभी तो भूमि अधिग्रहण से जुड़े घटनाएं आम होते जा रहे हैं। इसी मसले पर न्यूज बैंच रिपोटर विकास कुमार की खास रिपोर्ट।

विभिन्न राज्यों में भूमि अधिग्रहण मामले के आकड़े-

1.पंजाब और हरियाणा राज्यों में पहले से ही कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का कार्य शुरू हो चुका है।

2.आंध्र प्रदेश में करीब 20 लाख एकड़ भूमि को गैर कृषि कार्यों में बदल दिया गया।

3.हरियाणा में वर्ष 2005-2010 के बीच करीब 60 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है।

4.मध्य प्रदेश में करीब 4.40 लाख हेक्टेयर जमीन को पिछले पांच वर्षों की अवधि के भीतर औद्योगिक कार्यों के लिए अधिग्रहीत किया गया।

5.कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और पंजाब ने उद्योगों के लिए लैंड बैंकबनाए हैं।

6.राजस्थान में उद्योगों को किसानों से प्रत्यक्ष तौर पर जमीन खरीदने की अनुमति प्रदान की हुई है।

बात अगर ग्रेटर नोएडा की करें तो ग्रेटर नोएडा में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के संघर्ष को इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो कि वह अधिक दाम वसूलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश किसान अपनी पुश्तैनी जमीन को देना ही नहीं चाहते। उनको ऐसा करने के लिए बाध्य किया गया। असल मसला यह है कि सरकार खुद बिल्डर की भांति किसानों से व्यवहार करती है। वह बेहद काम दामों पर कृषि योग्य भूमि को किसानों से खरीदकर गैर कृषि कार्यों मसलन बिल्डरों को आवासीय इकाइयां बनाने के लिए महंगे दामों में बेच देती है। बाद में बिल्डर उस क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं के विकास द्वारा जमीन की कीमतों को कई गुना बढ़ा देते हैं। इन्हीं कीमतों पर वे अपने प्रोजेक्ट ग्राहकों में बेचते हैं। अब इस नई कीमतों को देखकर किसान खुद को ठगा सा महसूस करता है।

देखा जाए तो ऐसी घटनाएं जब-जब हुई है तब-तब सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी रोटियां सेंकने में लग जाते हैं। और किसानों की हित की बात करने लगते हैं। इसमें कोई भी राजनीतिक पार्टियां पीछे नहीं चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर वाम दल, सपा हो या बसपा कोई भी पार्टी इस समस्या को जड़ से मिटाने की बात तो दूर सभी अपनी अपनी राग अलापने लगते हैं जो निराधार होता है। सभी राजनीतिक पार्टी मौकापरस्त होते है तभी तो इसका खमियाजा गरीब किसान मजदूरों को उठाना पड़ता है।

ऐसी ही एक घटना मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते दादरी इलाके में अनिल अंबानी के एडीएजी ग्रुप की बिजली परियोजना वाली कंपनी रिलायंस पावर के विरोध के साथ शुरू हुई थी। जबकि मायावती के मुख्यमंत्री रहते नोएडा से आगरा तक बनाया जा रहा हाई-वे उनके शासन के पिछले चार सालों में चार बार रणभूमी बन चूका है। इसी बहाने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भी किसानों के बीच अपनी पैठ बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन अचानक कांग्रेस शासित हरियाण के उल्लेवास गांव से भी भूमी अधिग्रहण को लेकर आवाजें आने लगी, जिसमें किसानों की जमीन राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट को दे दी गई है। इस घटना के बाद फिर राजनीतिक गलियारों में बयानों का दौर शुरू हो गया है। और सभी पार्टियां एक दूसरे पर उगली उठाने लगे हैं।

इन सबको देखते हुए सवाल उठता है कि समाज में विकास के दो मानदंड कैसे हो सकते हैं? जिसमें अमीरों के लिए अलग नियम और गरीबों के लिए अलग? क्या यह सच्चाई नहीं है कि हर व्यक्ति चाहता है कि उसके पास भी जमीन का एक टुकड़ा हो? इसको हासिल करने के लिए वह जी-तोड़ मेहनत करता है। इसके उलट तस्वीर का एक स्याह पहलू यह है कि गांव में जिनके पास जमीन और मकान है, उनको विकास के नाम पर जबर्दस्ती बे-दखल किया जा रहा है। निश्चित रूप से यह विकास नहीं है बल्कि जबरन भूमि अधिग्रहण है।

विवाद की वजह-

1. देश में गैर कृषि योग्य भूमि काफी है, लेकिन सामान्यतया वहां उद्योग स्थापित करना फायदे का सौदा नहीं साबित होता। इसीलिए कंपनियां विकसित क्षेत्र यानी शहरों के करीब ही अपने संयंत्र स्थापित करने को प्रमुखता देते है। आधारभूत संरचनाओं के लिए परियोजना तैयार करते समय हर तरह की जमीन बीच में आती है। इससे वहां की जमीन के अधिग्रहण से हमेशा किसी न किसी आबादी को उजड़ना पड़ता है.

2. ग्रमीण और दूरदराज के क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण सालों साल से चली आ रही जीवनशैली और रोजगारों के उजड़ने का सवाल बनता है जबकि विकसित क्षेत्रों और शहरी इलाकों के आसपास और खेती योग्य जमीन के मामले में मुआवजे को लेकर मिलने वाली रकम पर पेंच फंसता है.

3. सही कीमत पर लोग जमीन देने को तो तैयार हो जाते है लेकिन यह सही कीमत तय करने की कोई प्रामाणिक विधि नहीं अपनायी जाती है.


4. अंधाधुंध शहरीकरण से जमीन के भाव आसमान छूने लगते है। उस पर भी जैसे ही किसी क्षेत्र में नयी परियोजना के आने की सुगबुगाहट सुनायी देती है वैसे ही वहां के दाम सातवें आसमान पर पहुंच जाते है.


5. कुछ समय पहले सरकारी परियोजनाओं में सरकार मुनाफा नहीं कमा पाती थी, लेकिन हाल के वर्षों में शहरीकरण और आधारभूत परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ने के बाद सरकार जमीन लेकर कंपनियों को सौंप देती है.


6. किसानों का मानना है कि सरकार उनकी जमीन को कौड़ियों के भाव लेती है और बाद में उसी जमीन की कई गुना अधिक कीमत वसूली जाती है। यह अन्याय है। ऐसा नहीं होना चाहिए.


7. बिल्डर्स का मानना है कि उस क्षेत्र में उनके आने और उनके द्वारा विकास कार्य किए जाने के बाद ही जमीन की कीमतों में वृद्धि होती है। जब जमीन अधिग्रहीत की गई थी तब यहां का बाजार भाव काफी नीचे था। इसलिए यह आरोप निराधार हैं.

संभावित समाधान-

1.किसी भी नयी बसावट के लिए बाकायदा टाउन प्लानिंग होनी चाहिए।

2. इस नई बसावट वाले इलाकों में रिहायशी और उद्योगों के लिए अलग अलग प्लॉट चिह्नित किए जाने चाहिए। इलाके में पार्क एवं सड़क जैसी आधारभूत संरचनाओं का विकास सरकार द्वारा तय किया जाए। शेष जमीन का मालिकत्व किसानों के पास रहे.

3. इस इलाके में आने वाले बिल्डर्स या उद्मी सीधे किसानों से उनकी जमीनों का सौदा करें। इस स्थिति में किसान अपनी जमीन की मुंहमागी कीमत वसूलने की हालत में होंगे। इस तरीके के अधिग्रहण से ये विवाद कम किए जा सकते हैं.

4.1894 के भूमि अधिग्रहण कानून, संशोधन और प्रस्तावित पुर्नवास पॉलिसी तीनों को हटाकर उसकी जगह एक नई पॉलिसी बनाई जाए। इसकी जगह कंप्रीहेंसिव एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट एक्ट लाया जाना चाहिए।.

5. जमीन सिर्फ सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ही ली जानी चाहिए और अधिग्रहीत भूमि पर मॉल, वाटर पार्क और गोल्फ कोर्स का निर्माण सार्वजनिक उद्देश्य के तहत नहीं गिना जा सकता।


6. कृषि योग्य भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्यों में नहीं किया जाना चाहिए.

7. 170 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर है। जो भी निर्माण किया जाना चाहिए इसी बंजर भूमि पर किया जाना चाहिए। चीन में जो ओलंपिक खेल हुए थे उसके लिए उसने बंजर जमीन पर पूरा एक शहर बना दिया था।

8. अधिग्रहण की जा रही जमीन के मालिकों को मुआवजे के अलावा नौकरी, स्टॉक में हिस्सेदारी भी मिले।

9. भूमि अधिग्रहण करके 73वें और 74वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम सभाओं और नगर निकायों को दिए गए अधिकारों का हनन किया जा रहा है। सबसे पहले ग्राम सभा से जमीन अधिग्रहण के संबंध में सहमति लेनी चाहिए। केरल में इस संबंध में सख्त कानून बने हैं। इसलिए ही कोका कोला जैसी कंपनी को वहां से हटना पड़ा।

Tuesday, August 2, 2011

हिना की खुबसूरती के आगे, गायब हुआ असल मुद्दा


पाकिस्तान की पहली महिला विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की बातचीत का शालीन लहजा किसी को आकर्षित कर सकता है। 34 साल की उम्र में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यदि अपने देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय की बागडोर उन्हें थमाई तो निश्चय ही उनकी प्रतिभा का कायल होकर ही। हिना 2009 में नेशनल असेंबली में बजट भाषण करने वाली सबसे कम उम्र की और पहली मंत्री भी बन चुकी हैं।

हमारे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा एवं हिना खार के बीच दो पीढि़यों का अंतर है, पर हैदराबाद हाउस में बातचीत की शुरुआत से पूर्व एवं बातचीत के बाद संयुक्त पत्रकार वार्ता में उम्र का यह अंतर कतई नहीं झलक रहा था। हिना खार ने अपने वक्तव्य में संयम, व्यवहार कौशल और कूटनीतिक शालीनता का परिचय दिया। उन्होंने एसएम कृष्णा के व्यवहार, बातचीत के प्रति दृष्टिकोण और उसे परिणामकारी बनाने की संकल्पबद्धता की प्रशंसा करते हुए कहा कि मैं पहले से ज्यादा विश्वस्त हूं कि यह प्रक्रिया उपयोगी, लाभकारी एवं परिणामकारी होगी।

कृष्णा ने अपने बयान में कहा कि मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि हमारे संबंध बिल्कुल सही पटरी पर हैं। हमें कुछ दूरियां तय करनी हैं, लेकिन खुले मन एवं रचनात्मक नजरिए से, जो बातचीत के इस दौर में दिखाया गया है। हिना खार ने कृष्णा की बात का यह कहते हुए समर्थन किया कि भारतीयों और पाकिस्तानियों की नई पीढ़ी ऐसा रिश्ता देखेगी, जो उम्मीद के अनुसार हमने पिछले दो दशकों में अनुभव किया है, उससे बदला हुआ होगा। उन्होंने तो सहयोग के एक नए युग की भी संभावना भी व्यक्त कर दी, लेकिन उम्मीदों और विश्वास के इन शब्दों के चमचमाते महल को आधार देने के लिए समझौते का कोई स्तंभ नहीं था। मीडिया से बचने के लिए बिना सवाल जवाब के अपना-अपना बयान ये लोग कह गए।

ये संयुक्त वक्तव्य मुंबई हमला संबंधी मुकदमा एवं मादक द्रव्य नियंत्रण सहित आतंकवाद विरोधी उपायों, वाणिज्य एवं आर्थिक सहयोग, वुल्लर बांध/तुलबुल परियोजना, सर क्रिक, सियाचिन, विश्वास बहाली उपायों सहित शांति एवं सुरक्षा, जम्मू-कश्मीर, मित्रतापूर्ण आदान-प्रदान को प्रोन्नति, मानवीय मुद्दों पर बैठकों की समीक्षा एवं संतोष प्रकट करने की बात है, लेकिन किसी को नहीं पता कि इनमें दोनों ओर के कश्मीर के बीच सामान्य व्यापार एवं मित्रवत आदान-प्रदान को छोड़कर शेष मुद्दों पर बातचीत कहां पहुंची है। वास्तव में जम्मू कश्मीर के दोनों ओर व्यापार की अवधि सप्ताह में दो दिनों से चार दिन करने, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद एवं पूंछ-रावलकोट रास्ते पर ट्रकों की आवाजाही भी इसी अनुसार चार दिनों करने तथा पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के लिए भी दोनों मार्गो से बसों का आवागमन सुनिश्चित करने के अलावा कुछ भी ऐसा सामने नहीं आया, जिसे बतचीत में भेद न कहा जा सके। परिवार की पृष्ठभूमि तथा राजनीति एवं मंत्री पद का अपना अनुभव उन्हें इतना संतुलित बना चुका है कि उनके मुंह से ऐसी कोई बात नहीं निकल सकती थी, जो भारतीयों को नापसंद आए।

हालांकि हिना पिछले दो दशकों में संभवत: पहली विदेश मंत्री हैं, जिन्होंने अपने वक्तव्य में कश्मीर का जिक्र नहीं किया। बातचीत में तो कश्मीर अवश्य आया, क्योंकि वह समग्र बातचीत का एक विषय है, पर पत्रकारों के सामने दिए गए वक्तव्य में इसका उल्लेख न करना महत्वपूर्ण है। दिल्ली आने के बाद पाकिस्तान उच्चायोग में हिना खार ने कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत नेताओं सैयद अली शाह गिलानी एवं मौलवी मीरवाइज उमर फारुख से मुलाकात करके यह संदेश तो दे ही दिया कि भारत के साथ किसी बातचीत में वे कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख की अनदेखी नहीं कर सकतीं। सच कहें तो हुर्रियत नेताओं से मिलना उनके द्वारा पाकिस्तान की सोच में बदलाव तथा नए युग की शुरुआत की कामना के विपरीत था। हालांकि हमें इसे ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है। बतौर विदेश मंत्री हिना के सामने इस समय एक साथ कई चुनौतियां हैं।

ओसामा बिन लादेन के एबटाबाद में मारे जाने के बाद से दुनिया के प्रमुख देशों में पाकिस्तान के प्रति नाराजगी तथा अविश्वास काफी बढ़ा है। सबसे बड़े वित्तपोषक अमेरिका के साथ उसके रिश्ते असामान्य हैं। सैनिक सहायता में कटौती की गई है और बराक ओबामा प्रशासन पर पाकिस्तान को मिलने वाली अन्य सहायता राशि में भी कटौती का दबाव बढ़ रहा है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी, होगी या नहीं, यह भी बहुत बड़ा प्रश्न बनकर खड़ा है। इन सबके साथ एक युवा नेता के रूप में पश्चिमी देशों में हिना खार को अपनी छवि भी एक आधुनिक, प्रगतिशील और भविष्य की ओर देखने वाली नेता की बनानी है। जरदारी और गिलानी ने हिना को विदेश मंत्री बनाते समय अमेरिका में उच्च शिक्षा के कारण बने रिश्ते को भी ध्यान में रखा होगा। वैसे भी भारत द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से विदेश मंत्री के तौर पर उनकी पहली यात्रा थी। इसमें न वे आगे बढ़ने का जोखिम उठा सकती थीं, न कश्मीर जैसे मुद्दे पर कोई कड़ा बयान देकर बातचीत की गाड़ी में अवरोध डाल सकतीं थीं।

अमेरिका सहित पश्चिमी देश हर हाल में पाकिस्तान को भारत के साथ बातचीत करते देखना चाहते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिना का दौरा किसी ठोस परिणाम की ओर बढ़ने की बजाय बातचीत आगे जारी रखने का रास्ता बनाने की यात्रा थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह बातचीत किसी मुद्दे को सुलझाने की बजाय दुनिया को यह संदेश देने के लिए है कि दोनों देशों के बीच कोई युद्ध नहीं होने वाला है। सच कहा जाए तो बातचीत के पीछे छायावादी शब्दावलियों से आगे कोई सुस्पष्ट लक्ष्य नहीं है। जब कोई साफ लक्ष्य नहीं होता और बातचीत स्थिरांक पर टिकी रहती है तो विश्वास बहाली उपाय जैसी शब्दावली काम में आती है।

हिना खार कहती हैं कि हमने इतिहास से सीख ली है, लेकिन इतिहास के बोझ से दबे नहीं हैं। हम एक अच्छे मित्रवत पड़ोसी के रूप में आगे बढ़ सकते हैं, जिसका एक-दूसरे के भविष्य में दांव है और जो यह समझता है कि दोनों देश का क्षेत्र के प्रति एवं क्षेत्र के अंदर क्या दायित्व है। भारत सहित संपूर्ण दक्षिण एशिया के हित में यही है कि पाकिस्तान इतिहास से सीख ले और अपने देश, पड़ोसी तथा क्षेत्र के प्रति दायित्व को समझे। ऐसा हो तो निश्चय ही एक नए युग की शुरुआत होगी। किंतु इन शब्दों को कर्म में परिणत करना होगा। परंपरागत खांचे में उलझे वर्तमान पाकिस्तान से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।

मोदी की प्रशंसा बनी वुस्तानवी के लिए गले की फांस


शाहिद ए चौधरी गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम (कुलपति) पद से बर्खास्त कर दिया गया है। वस्तानवी का कसूर यह था कि उन्होंने इस साल जनवरी में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी थी, लेकिन असल कारण यह प्रतीत होता है कि दारुल उलूम में जो अंदरूनी उठापटक चल रही है, उसमें एक गुट वस्तानवी को पसंद नहीं करता था। शायद यही वजह है कि वस्तानवी के समर्थक बर्खास्तगी को अदालत में चुनौती देने का मन बना रहे हैं।

यह बात हास्यास्पद और विस्मयकारी लगती है कि भाजपा समेत कुछ संगठन और व्यक्ति वुस्तानवी साहब के मोदी की प्रशंसा करने वाले तथाकथित वक्तव्य को लेकर उनका समर्थन और प्रशंसा कर रहे हैं और उन्हें प्रगतिशील बता रहे हैं। जब कोई दूसरा मुसलमान धर्मगुरु दिग्विजय सिंह या यूपीए की प्रशंसा में कोई भी बयान दे, तो वे उन्हें न केवल सांप्रदायिक घोषित कर देते हैं, बल्कि उनकी भरपूर निंदा करते हैं और यह मशविरा देने से भी नहीं चूकते कि मुसलमान धर्मगुरुओं को राजनीतिक मुद्दों पर बयानबाजी नहीं करनी चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुस्लिम मदरसों विशेषकर अति प्रभावी दारुल उलूम देवबंद में आधुनिक जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए सुधार की जबरदस्त गुंजाइशें हैं। इसलिए जब वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद का मोहतमिम बनाया गया था तो यह उम्मीद जाग उठी थी कि इस्लामी मदरसों में सुधार आने लगेगा, लेकिन वस्तानवी के मोहतमिम बनते ही दारुल उलूम की अंदरूनी सियासत अपना रंग दिखाने लगी और जैसे ही वस्तानवी का एक विवादास्पद बयान सामने आया तो उन्हें हटाने की मुहिम ने जोर पकड़ लिया। कुल मिलाकर हुआ यह कि एक काम जो सुधार की तरफ ले जाने के लिए शुरू हुआ था, उस पर असमय ही विराम लग गया और मुस्लिमों का दुर्भाग्य ज्यों का त्यों बना रहा।

अगर गौर से देखा जाए तो वस्तानवी के तथाकथित बयान में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था और न ही उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए कोई क्लीन चिट दी थी। गौरतलब है कि वस्तानवी ने इस साल जनवरी में कहा था कि समय आ गया है कि मुस्लिम वर्ष 2002 के गुजरात दंगों की भयानक यादों को भूलें और आगे बढ़ें, क्योंकि फिलहाल गुजरात में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जिस पर चिंता की जाए। जाहिर है, इस बयान को मोदी के लिए क्लीन चिट नहीं कहा जा सकता, जिनकी सरकार 2002 में दंगों में नियंत्रण पाने में असफल रही थी। वस्तानवी का यह बयान केवल इतना महत्व रखता है कि मुस्लिमों को व्यावहारिक होना चाहिए और आधुनिक दुनिया की जरूरतों को समझते हुए पिछली भयावह यादों को भूलकर आगे तरक्की के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए। लेकिन उनके इस बयान को उनके विरोधी गुट ने अपने सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल किया। नरेंद्र मोदी और गुजरात के दंगे मुस्लिमों के दिलो-दिमाग में भावनात्मक टीस हैं। इसी जज्बे का लाभ उठाते हुए वस्तानवी के विरोधियों ने यह प्रचारित किया कि वे गुजरात के होने के नाते नरेंद्र मोदी के समर्थक हैं। इसलिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त इस्लामी मदरसे के मोहतमिम पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, लेकिन वस्तानवी के समर्थकों को यह बात पसंद नहीं थी और उन्होंने उन पर इस्तीफा न देने का दबाव बनाया। इसका नतीजा यह निकला कि कार्यकारिणी ने वस्तानवी को बर्खास्त कर दिया।

इसमें किसी को शक नहीं हो सकता कि वस्तानवी इस्लामी परंपरा को दिलोजान से मानने वाले और उस पर अमल करने वाले व्यक्ति हैं। साथ ही उन्होंने आधुनिक शिक्षा भी प्राप्त की है। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे मुस्लिम भावनाओं से अवगत नहीं या उनका सम्मान नहीं करते। बात सिर्फ इतनी सी है कि उन्होंने जो व्यावहारिक बयान दिया, उस पर उनके विरोधियों ने अपनी सियासी रोटियां सेंक लीं और फिलहाल के लिए दारुल उलूम देवबंद को प्रगति के पथ पर जाने से रोक दिया। दरअसल, दारुल उलूम देवबंद पर और जमाते उलेमा हिंद पर हुसैन अहमद मदनी के जमाने से ही मदनी परिवार का कब्जा है, जिसे वह किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। एक समाजिक और सियासी पार्टी के रूप में जमाते उलेमा हिंद की देवबंदी मुस्लिमों पर गहरी पकड़ है। यह पकड़ दारुल उलूम देवबंद और उससे संबंधित देश भर में चल रहे मदरसों की वजह से है। इसी की वजह से मदनी परिवार के सदस्यों को राज्यसभा में प्रवेश का अवसर भी मिलता रहता है। अब भला जिस संस्था से इतने सियासी और समाजी और शायद आर्थिक फायदे हों, उसे कौन छोड़ना चाहेगा? इसलिए जब मदनी गुट के विरोधी इस बात में कामयाब हो गए कि वस्तानवी दारुल उलूम के मोहतमिम बन गए तो यह लाजमी था कि मदनी गुट उनका विरोध करता। विरोध करने का मौका गुजरात संबंधी बयान से मिल गया। साथ ही यह भी प्रचारित किया गया कि वस्तानवी दारुल उलूम देवबंद के छात्र या शिक्षक नहीं रहे हैं। लेकिन वस्तानवी के जाने से दारुल उलूम देवबंद की समस्याओं पर विराम नहीं लगता है।

वस्तानवी के समर्थक उनकी बर्खास्तगी के खिलाफ अदालत में जाने का मन बना रहे हैं और उन्हें समाजवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त है। ध्यान रहे कि समाजवादी पार्टी की नजर हमेशा मुस्लिम वोटों पर रहती है और इसलिए वह अपने आपको देवबंद की राजनीति से अलग नहीं रख सकती। हालांकि वस्तानवी ने स्वयं अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ अदालत में जाने से इनकार किया है, लेकिन उनके समर्थकों का कहना है कि वे पहले की तरह अपना मन बदल लेंगे। जब पैनल की रिपोर्ट आई थी तो वस्तानवी ने अपना इस्तीफा देने का मन इसलिए बदल लिया था कि वे एक दोषी के रूप में अपना पद नहीं छोड़ेंगे। अब बर्खास्तगी पर तो उन्हें अपनी बात कहने का मौका भी नहीं दिया गया, इसलिए उनके समर्थकों को उम्मीद है कि वे अदालती कार्रवाई में उनका साथ देंगे। अगर वस्तानवी साथ नहीं भी देते हैं तो जनहित याचिका दायर करने के लिए प्रासंगिक साक्ष्य जुटाने का प्रयास कर रहे हैं।

बहरहाल, इसका नतीजा क्या होता है, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन इतना तय है कि देवबंद की सियासी लड़ाई में न केवल धर्मिक शिक्षा का नुकसान हो रहा है, बल्कि मदरसे जो आधुनिक जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं, उन्हें रूढि़वादिता के मलबे में ही दबाने का प्रयास किया जा रहा है। यह न मुस्लिमों के भविष्य के लिए और न ही देश के लिए बेहतर है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि वस्तानवी की बार्खास्तगी को रद्द किया जाए और दारुल उलूम देवबंद को आधुनिक शिक्षा का ऐसा केंद्र बनाया जाए, जिसकी जड़ें इस्लामी परंपरा से अलग न हों।

यहां पर यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि दारूल उलूम देवबंद की 30 मई 1866 में स्थापना के बाद से यह परंपरा रही है कि उसके किसी मोहतमिम ने राजनीतिक विवादों में पड़कर कोई बयानबाजी नहीं की है। हमारी राय में एक धर्मनिरपेक्ष लोकशाही में यह और भी जरूरी है कि धर्मगुरु का संबंध चाहे किसी भी आस्था या संप्रदाय से क्यों न हो, उनके आचरण की सभ्यता यही होनी चाहिए। वुस्तानवी साहब को भी इसी का निर्वाह करना चाहिए था। यह न कर पाने की वजह से ही उनके विरोधियों को यह अवसर मिल गया। बहरहाल, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्थाएं व्यक्तियों से सदैव बड़ी होती हैं। उनके वर्ग और गौरव को बनाए रखने के लिए हर त्याग और बलिदान के लिए सभी को तैयार रहना चाहिए।

Saturday, April 9, 2011

देश का असली हीरो-अन्ना हजारे

देश में बढती भष्टाचार को रोकने के लिए अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल लाने का जो प्रयास कर रहे हैं वह सराहनीय ही नही काबीलेतारिफ भी है। देश से भष्टाचार मिटाने के लिए जन लोकपाल बिल की खातिर संघर्ष करने के लिए अन्ना हजारे को लोगों ने मनाया और एकजुटता के साथ देश को एक कड़ी के रूप में जोड़ने का प्रयास भी कर रहे हैं जिससे भष्टाचारियों को उनकी किए का सजा मिल सके।जो आज खुले आसमान में घूम रहे हैं। ईमानदारी से कहूं तो मैं इसकी सफलता को लेकर सशंकित था। मैं हमेशा महसूस करता हूं कि आज की दुनिया में इन चीजों का ज्यादा से ज्यादा सांकेतिक महत्व है। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझसे वह विडियो शेयर किया जो उनके संगठन ने बनाया था। इसमें अन्ना हजारे संसद के सामने खड़े होकर लोगों से जन लोकपाल बिल के समर्थन में उनके आमरण अनशन से जुड़ने की अपील करते दिख रहे थे। मैं इसे देखने के बाद भी सशंकित था लेकिन अरविंद केजरीवाल अपनी कोशिशों को लेकर इतने ईमानदार हैं कि मैंने उन्हें हर तरह से समर्थन देने का वादा कर दिया।

इतना ही नही देखते ही देखते यह सफल कोशिश रंग लाई है। जंतर-मंतर में अन्ना जहां अनशन पर बैठे हैं, वह जगह आम लोगों के लिए तीर्थस्थल बन गई है। समय-समय पर यहां छात्र, शिक्षक, स्वतंत्रता सेनानी, पर्यटक से लेकर मशहूर हस्तियां तक पहुंच रही हैं। हो सकता है कि सिलेब्रिटीज़ का तो पहुंचने का मकसद यहां पर स्थायी रूप से जमे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ध्यान पाना हो, लेकिन दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया सराहनीय है। एक ऐसे देश में जहां पर लोग सिलेब्रिटीज़ के दीवाने हैं, यह देखकर अच्छा लगा कि लोगों ने इन सिलेब्रिटीज़ को कोई खास भाव नहीं दिया और असली मुद्दे पर ध्यान केंद्रित रखा। असल सिलेब्रिटी तो अन्ना हैं और कुछ भी असली भारतीयों का ध्यान इस मुद्दे से हटा नहीं सका। खरी-खरी बात करना, भ्रष्ट को बिना लाग-लपेट के भ्रष्ट कहना और जिस दृढ़ निश्चय से वह 'शक्तिशालियों' को भी इनकार कर देते हैं, उससे वह जन समान्य के मसीहा बन गए हैं।

इस आंदोलन की दूसरी अच्छी बात यह है कि यह खुद को कमजोर करनेवाली ताकतों के प्रभाव से ऊपर उठ चुका है। मैंने आंदोलन को कमजोर करनेवाली ताकतों के बारे में बताया था और कहा था इन चीजों से बचना चाहिए। आंदोलन व्यर्थ हो जाने का अर्थ होता है उन लोगों के हाथों में खेलना जो हमें लूट रहे हैं। इसलिए लोकपाल बिल को लाने का प्रयास जारी है. जो सफल होता दिख रहा है। अब तक सबकुछ ठीक रहा है। लेकिन इस आंदोलन से क्या हासिल किया जा सकता है, और उसे कहां तक लेकर जाया जाए, उस पर सिविल सोसायटी में जो मतभेद हैं, वे विचलित करने वाले हैं। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, इस आंदोलन से सधने वाला उद्देश्य किसी व्यक्ति-विशेष से बड़ा है। मैं तो यहां तक महसूस करता हूं कि इस आंदोलन में कुछ खास लोगों के शामिल होने की कोई जरूरत भी नहीं है। कुछ तथाकथित सोशल ऐक्टिविस्ट्स का इस आंदोलन में शामिल होना खतरनाक है। यहां बात ऐसे सोशल ऐक्टिविस्ट्स की हो रही है जो सरकार के राज में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हों और सत्ता का पूरा स्वाद जिन्होंने चखा हो। अब अगर ऐसे लोगों इस आंदोलन से जुड़ते हैं तो यह खतरनाक है। ये लोग इस आंदोलन को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए केवल एक प्लैटफॉर्म की तरह से यूज़ करेंगे।

हालांकि तब हम यह तर्क कर सकते हैं कि अगर कोई व्यक्ति सुधरने की कोशिश करता है और मदद का हाथ बढ़ाता है तो यह आंदोलन के लिए अच्छा है। एक दूसरा तर्क यह है कि जो लोग सरकार में शामिल हैं, वे जानते हैं कि यह कैसे काम करता है और ऐसे लूपहोल्स कहां हैं जिनका कि भ्रष्ट लोग अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करते हैं। तो ऐसे में जब हम इन लूपहोल्स को खत्म करना चाहते हैं, तब शायद ये लोग इस लूपहोल्स को खत्म करने के लिए बहुत मददगार साबित हो सकते हैं।

मुझे लगता है कि जब यह आंदोलन वास्तविक जन आंदोलन में बदल जाएगा (जैसा कि लग भी रहा है) तो इस मंच का अपने निजी स्वार्थ के लिए उपयोग करने की इच्छा रखने वाले लोग खुद-ब-खुद किनारे हट जाएंगे। जब 30 हजार लोग एक झटके में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक जगह इकट्ठे हो जाएं तो यह नेताओं के लिए चिंता की बात है। यह लोगों की इच्छा ही थी जिसने उस रैली को सफल बनाया। और यही लोग ऐसे लोगों को इस मंच से उठाकर बाहर फेंक देंगे, जो इस मंच का गलत उपयोग करना चाहेंगे। कभी-कभी स्थिति काबू से बाहर भी हो सकती है लेकिन इससे बचा नहीं जा सकता और हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए।

इस आंदोलन को लेकर दिल्ली सहित देश भर में लोगों का जो रेस्पॉन्स नज़र आया है, उससे मेरी उम्मीदें पहले से दस गुना बढ़ी हैं। लेकिन इसका मतलब भी है कि इस आंदोलन के पीछे जो लोग हैं, उनकी जिम्मेदारी भी उतनी ही बड़ी है। हालांकि सत्ता पक्ष इस मुद्दे को उलझाना चाह रहा है और निरर्थक बातें कर रहा है, लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि जिन लोगों को बार-बार सरकार से बातचीत करने के लिए बुलाया जा रहा है, वे इनकी बातों में नहीं आएंगे।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह ज्योति इसी तरह जलती रहे, जगमगाती रहे और देश भर में प्रकाश फैलाती रहे तो इसमें कोई शक नहीं कि अंतिम विजय इस देश के जन और गण ही होगी!

Friday, September 10, 2010

कप्तान से कैप्टन तक का सफर

क्रिकेट के मैदान पर चौके-छक्के उड़ाने वाले और देश में इस खेल के भगवान कहे जाने वाले, अपने बल्ले से क्रिकेट जगत की बुलंदियों को छू चुके स्टार बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के लिए भारतीय वायु सेना [आईएएफ] में ग्रुप कैप्टन का मानद पद से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं रैंक पाने के बाद सचिन तेंडुलकर विश्व के आधुनिकतम युद्धक विमान सुखोई 30 एमकेआई में उड़ान भड़ने के लिए बेकरार हैं। तेंदुलकर पहले ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें आईएएफ ने इस पद से सम्मानित किया है और वह यह सम्मान हासिल करने वाले पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिनका उड्डयन क्षेत्र से कोई संबंध नही है।
इससे पहले 2008 में भारत के विश्व कप विजेता कप्तान कपिल देव को प्रादेशिक सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के मानद पद से सम्मानित किया गया था। रिकार्डों के बादशाह 37 वर्षीय तेंदुलकर को वायुसेना में उसके ब्रांड एंबेसडर के तौर पर शामिल किया गया है। आईएएफ प्रमुख एयर चीफ मार्शल पी वी नायक ने वायुसेना आडिटोरियम में रंगारंग समारोह में उन्हें इस पद से सम्मानित किया। तेंदुलकर ने सम्मान हासिल करने के बाद कहा, 'वायुसेना से सम्मानित होना बड़ी खुशी और सम्मान की बात है। जो मैं सोचता था वह आज सच हो गया। मैं वायुसेना से जुड़कर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मैं युवाओं से वायुसेना से जुड़ने और देश की सेवा करने का आग्रह करता हूं।'
इससे पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 23 जून को इस स्टार बल्लेबाज को वायुसेना के मानद पद से सम्मानित करने को मंजूरी दी थी। तेंदुलकर को यह सम्मान देश की सेवा में योगदान देने वाली प्रमुख हस्तियों को सैन्य बलों के मानद पद से सम्मानित करने के प्रावधान के तहत दिया गया है। वायुसेना का मानना है कि तेंदुलकर के जुड़ने से युवा पीढ़ी आईएएफ से जुड़ने और देश की सेवा करने के लिए प्रेरित होगी। नायक ने कहा, 'युवा उनसे [तेंदुलकर] प्रेरित हैं। मेरा मानना है कि इससे युवा वायुसेना से जुड़ने के प्रति प्रेरित होंगे। आईएएफ को बेहतर बनाने के लिए उपाय करना मेरा कर्तव्य है और सचिन के जुड़ने से वायुसेना के बारे में लोगों में जागरूकता लाने में मदद मिलेगी।'


तेंदुलकर मानद रैंक से सम्मानित होने से पहले आईएएफ से जुड़ने की प्रक्रिया से परिचित हुए और उन्होंने मूल सैन्य अभ्यास और ड्रिल का प्रशिक्षण लिया।
सचिन से पहले आईएएफ ने 21 हस्तियों को मानद पद से सम्मानित किया है
1.जवाहर यशवंत राव(जव्हार के राजा) फ्लाइट लेफ्टिनेंट, 1944
2.रूप चंद्र(रॉयल एयर फोर्स अधिकारी) विंग कमांडर,1947
3.महाराजा मानवंत सिंह(जोधपुर के राजा) ग्रुप कैप्टन, 1948
4.जे.ब्युमॉन्ट(रॉयल इंडियन एयर फोर्स) ग्रुप कैप्टन,1950
5.सर थॉमस एमहर्स्ट(रॉयल एयर फोर्स) एयर मार्शल,1950
6.नवाब हमीदुल्लाह(भोपाल के नबाव) एयर वाइस मार्शल,1951
7.सर प्रताप चंद्र(मयूरभंज के महाराजा) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1951
8.जीई गिब्स(रॉयल एयर फोर्स अधिकारी) एयर मार्शल,1954
9.महाराजा उमेंद्र सिंह(जोधपुर के महाराजा) एयर वाइस मार्शल,1955
10.राजा नरेंद्र महापात्र(रणपुर के महाराजा) फ्लाइट लफ्टिनेंट,1956
11.एनआर बत्रा, स्क्वाड्रन लीडर,1962
12.एएस संधू(जन संपर्क अधिकारी) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1971
13.एसके कुलकर्णी(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1971
14.सी.रमानी(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1971
15.एसडी जडेजा(जामनगर के महाराजा) विंग कमांडर,1973
16.जेआरडी टाटा(ग्रुप कैप्टन,1948,एयर वाइस मार्शल1974
17.एचएस मलिक(उच्चायुक्त) विंग कमांडर,1949-ग्रुप कैप्टन,1975
18.यदु नंदन चतुर्वेदी(जन संपर्क अधिकारी) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1982
19.अभय देव(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1989
20.सरदार सुरजीत(पटियाला के महाराजा) एयर कमोडोर,1990
21.विजयपत सिंघानिया(उद्योगपति) एयर कमोडोर,1990
कपिल पाजी भी बन चुके हैं कर्नल
साल 2008 में 1983 का विश्वकप जिताने वाले कप्तान कपिल देव को आर्मी के लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से नवाजा गया था। इससे पहले आईएएफ ने उद्योगपति और विमानन के दिग्गज विजयपत सिंघानिया को एयर कमोडोर की उपाधि से सम्मानित किया थाकुछ इस तरह होती हैं एयर फोर्स के अफसरों की रैंक्स
11. पायलट ऑफिसर
10. फ्लाइंग ऑफिसर
09. फ्लाइट लैफ्टिनैंट
08. स्काड्रन लीडर
07. विंग कमांडर
06. ग्रुप कमांडर- (सचिन को मिलने वाली मानद रैंक)
05. एयर कोमोडेर
04. एयर वाइस मार्शल
03.एयर मार्शल
02. एयर चीफ मार्शल
01. मार्शल ऑफ द एयर फोर्स
इस तरह सचिन मानद रैंक मिलने के बाद वायूसेना के अफसरों की रैंकिंग में छठे पायदान पर हो गए। तेंदुलकर ने अपने दो दशक से अधिक समय के करियर में कई रिकार्ड बनाए हैं। वह सर्वाधिक 169 टेस्ट मैच खेलने वाले क्रिकेटर है। इसके अलावा उन्होंने 442 वन डे मैच खेले हैं और श्रीलंका के सनथ जयसूर्या के 444 मैच के विश्व रिकार्ड के काफी करीब हैं। तेंदुलकर ने अब तक टेस्ट मैचों में 56.08 की औसत से 13,742 रन बनाए हैं जिसमें 48 शतक और 55 अर्धशतक दर्ज हैं। उन्होंने वनडे मैचों में 46 शतक, 93 अर्द्धशतक सहित 17,598 रन,45.12 के औसत से बनाए हैं। वह वनडे मैचों में दोहरा शतक जमाने वाले दुनिया के पहले एकमात्र बल्लेबाज हैं।