Monday, October 24, 2011

दिवाली के पटाखों की आग में झुलसता बचपन

किसी देश का विकास जिन अहम पहलुओं पर निर्भर करता है उनमें से एक सबसे अहम पहलू है वहां के बच्चों का विकास और उनकी स्थिति। बच्चे देश के आने वाले कल के भावी कर्णधार एवं प्रगति का आइना होते हैं। चाहे आज का समय हो या प्राचीन काल बच्चे देश के लिए अहम स्थान रखते हैं। भारत की बात करें तो एक विकासशील देश होने के नाते बच्चों की स्थिति पर ध्यान रखना जरुरी हो जाता है। लेकिन यह समय की विडम्बना है और बच्चों की बदनसीबी है जो इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी उन्हें अपनी जिन्दगी को जीने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। धूप भरी दोपहरी में सडकों के किनारे काम करते बच्चे हों या ढाबों या होटलों पर काम करते बच्चे हर जगह शोषण की एक जीती जागती तस्वीर पेश करते नजर आते हैं। चाय की दुकानों और ढाबों में तो बच्चे फिर भी मानसिक पीड़ा का कम शिकार होते हैं लेकिन जब बात खतरनाक कारखानों में काम करने की होती है तो मानसिक और शारीरिक पीड़ा दोनों ही अपने सबसे बड़े रुप में होते हैं।

दिवाली पास आने वाली है और हम सभी दिवाली के दिन पटाखों के दीवाने होते हैं। पटाखे जिसके बनने में कई हानिकारक रसायन इस्तेमाल होते हैं। लेकिन इन पटाखों को जलाते समय हम यह नही सोचते कि इन्हें बनाता कौन है। पटाखे के कारखानें में अधिकतर काम करने वाले श्रमिक बच्चे हैं। पटाखे बनाने वाली खतरनाक जगहों पर बच्चों का काम करना बेहद हानिकारक होता है। जरा सोच कर देखिए बारूद गंधक, कोयले का चूरा, कोबाल्ट, परमैग्नेट, एल्यूमिनियम की उपस्थिति में जहां बड़ों का भी दम घुटता हो वहां बच्चे किस तरह काम करते होंगे।

बच्चों की मजदूरी करने की वजह ज्यादातर दो ही होती है। एक तो गरीबी दूसरे बंधुवा प्रथा। दिवाली के मौके पर जहां सभी बच्चे पटाखे जला कर अपने बचपन का आनंद उठाते हैं वहीं कुछ बदनसीब बच्चे इन्हीं पटाखों को बनाते हैं. जनसंख्या विस्फोट, सस्ता श्रम, उपलब्ध कानूनों का लागू नहीं होना, बच्चों को स्कूल भेजने के प्रति अनिच्छुक माता-पिता कारण जो भी हो। पर सवाल यह उठता है कि यदि एक परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र आधार ही बाल श्रम हो तो कोई कर भी क्या सकता है।


इन पटाखा बनाने वाले कारखानों में काम करने वाले बंधुआ बाल मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उनसे दिन में 9-10 घंटे काम कराया जाता है और रात को उन्हें कमरे में कैदियों के समान बंद रखा जाता है। जो बच्चे भागने की कोशिश करते हैं उन्हें क्रूरतापूर्वक मारा जाता है। पटाखे बनाते समय बारुद के कण अक्सर हवा के माध्यम से बच्चों के फेफड़ों में पहुंच कर गंभीर बीमारियों को जन्म देते हैं। इन फैक्टरियों में काम करने वाले बच्चे उम्र से पहले ही दम तोड़ देते हैं। फैक्टरियों से निकलता जहरीला कोबाल्ट, गंधक और अन्य केमिकल के लंबे समय तक संपर्क में रहने की वजह से बच्चों पर इसका असर बहुत बुरा होता है। छोटे-छोटे बच्चे बायलररूम में जहरीले रसायनों को मिलाने का काम करते हैं। उन्हें जहरीले धुंए एवं भीषण गरमी का सामना करना पड़ता है। आग का खतरा तो सदा ही बना रहता है।

आजकल बच्चों का विशेषकर लड़कियों का यौन शोषण भी बड़े पैमाने पर हो रहा है. जहां भी बच्चे काम करते हैं यथा कारखाना, सड़क, मध्यमवर्गीय शहरी परिवार, बसस्टैंड आदि-आदि वहां उनका यौन शोषण भी होता है। वे अपना बचाव करने में बिलकुल असमर्थ होते हैं।

कानून के दो पहलू-

1. बाल श्रम (निषेध व नियमन) कानून 1986- यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 13 पेशा और 57 प्रक्रियाओं में, जिन्हें बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए अहितकर माना गया है, नियोजन को निषिद्ध बनाता है। इन पेशाओं और प्रक्रियाओं का उल्लेख कानून की अनुसूची में है।

2. फैक्टरी कानून 1948 यह कानून 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है।15 से 18 वर्ष तक के किशोर किसी फैक्टरी में तभी नियुक्त किए जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में 14 से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है।