Saturday, October 4, 2008

मुस्कान

मुस्कान


''किसी की मुस्कराहटों पर हो निसार..........किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार .जीना इसी का नाम है '' यह गाने की पंक्ति देती है........एक छोटी सी मुस्कराहट जो जिंदगी में बदलाव लाती है हँसाना,हँसना और मुस्कराना तनाव भरी जिंदगी में बहुत जरुरी है । नही तो जिंदगी अवसाद की हालत तक पहुच जाती हैं क्योंकि जिंदगी है तो मुश्किलें तो होंगी ही क्यों ना इसे मुस्करा कर हल किया जाए । बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका सिर झुका हुआ ,मुहं लटका हुआ ,चेहरा खींचा हुआ मानो ख़ुद तो तनाव ग्रस्त होते ही हैं आस पास के माहौल भी बोझिल बना देते हैं । उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि दुनिया कि सारी समस्या का बोझ बस उन्ही के सर पर है । हँसी और मुस्कराने से उनका कोई रिश्ता नाता ही नही तो बतायें अब ऐसे लोगो से कौन मिलना चाहेगा । कौन उनसे बात करके अपना मूड ख़राब करेगा । जरूरत है आपका चेहरा यूँ मुसकराता हुआ होना चाहिए कि बस जो आपसे मिले आपको देखे वह आपका ही हो कर रह जाए ।
किसी की बातें अच्छी, मीठी, सकारात्मक हो तो उनसे बात करने को ख़ुद ही जी चाहता है क्योंकि एक मुस्कराहट आपके चेहरे पर एक मुस्कान खिला देती है जिससे दिल खुश हो जाता है और नए ताजे विचार जहन में लिखने के लिए कुलबुलाने लगते हैं । आपकी मुस्कान का स्वास्थ से गहरा सम्बन्ध हैं क्योंकि वैज्ञानिक भी कहते हैं कि अपने खोये हुए स्वास्थ को लौटाने का मूल मन्त्र है खुशी और मुस्कान है । मुस्कराने से दिल मस्तिष्क हमारा श्वसन तंत्र ,पाचन तंत्र सब स्वस्थ और सक्रीय रहते हैं । घर के बुजुर्ग कहते हैं कि हँसते मुस्काराते लोग कभी बीमार नही पड़ते हैं ।क्योंकि उन में रोग से लड़ने की ताकत ज्यादा होती है ।

आपकी एक मुस्कराहट किसी का दिल जीत सकती है ,कोई बिगडा हुआ काम बना सकती है । आपकी एक मुस्कराहट से घर में खुशी का उजाला फैल सकता है । इसलिए आप हमेशा मुस्कुराते हैं और जिंदगी के हसीन पल को बीताते रहें ।

:- Vikash kumar shresth

यह कैसी धारणा है

यह कैसी धारणा है

कुष्ठ रोग को लेकर अनेक सामाजिक भांतियां भारतीय समाज में अब भी मौजुद है और कई लोग अब भी कुष्ठ रोग को एक दैवी अभिशाप मानते हैं । जिसके कारण इसके रोगियों को तिरस्कार झेलना पडता है । दुनिया भर के कुष्ठ रोगियों में 70 प्रसिशत रोगी भारत में रहते हैं । सामाजिक बुराई का एक यह भी नमूना समाज में व्याप्त है जहां कुष्ठ रोगीयों को समाज में रहने नही दिया जाता है और उनके खिलाफ जो भांतियां फैली हुई है कि कोई भी कुष्ठ रोगीयों के साथ रहना नही चाहता यहां तक की उन्हें समाज से निष्कार्षित भी कर दिया जाता है । जिससे उन्हें निर्वासन की जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता था । इस बिमारी को दूर करने का तरीका है तो लोगों में जागरूकता लाना , ताकि लोग इनके साथ भेदभाव की भावना ना रखे । इनके ऊपर ऐसी भी कहानियां व्याप्त है कि लोग कुष्ठ रोगियों से इतना डरने लगते है कि उन्हें जिंदा जलाने या जिंदा दफन करने में परहेज नही करते हैं ।

गौरतलब है कि भारत के कई हिस्सों में गलत धारणा के कारण कुष्ठ रोगियों के साथ अभी भी भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है । अधिकांश लोगों का मानना है कि यह बिमारी ठीक नही हो सकती है और इससे दूसरे लोग भी प्रभावित हो सकते हैं । भारत सरकार जहा कुष्ठ रोगियों को न तो छुआछूत और ना ही वंशानुगत मानती है । उनका कहना है कि कुष्ठ रोग संक्रामक है , लेकिन उसका संक्रामक को लेकर आंतक अधिक है , वास्तविक खतरे बहुत कम । यह रोग तब फैल सकता है जब तक इसका इलाज एक बार भी ना हो सका है क्योंकि एक बार इलाज कराने के बाद इस रोग के फैलने का सम्भावना नही होती है । कुष्ठ रोगियों को समाजिक दंस भी झेलना पडता है और उन्हे समाज से निकाल भी दिया जाता है । ऐसा प्रताडना सामाजिक अभीशाप नही तो और क्या हो सकता है ?

देश में दर्जन भर से अधिक कानून बने है वह भी इसे रोक पाने में असमर्थ हैं जिससे भेदभाव की भावना बढ जाती है । बात कानून की हो तो देखा जाए कि भारतीय रेल अधिनियम की धारा 56 में जो प्रावधान है उलके अंर्तगत कुष्ठ रोग ग्रस्त व्यक्ति को रेल यात्रा करने का प्रावधान नही है यहां तक की विवाह अधिनियम में तलाक का भी प्रावधान है । हम यह जानते हुए भी ऐसी गलती करते है जो समाज और देश के लिए सही नही है । समाज के गलत अवधारणा के कारण वे लोग अपनी बस्ती अलग बनाकर रहते है यहां तक कि ऐसे भी कुष्ठ रोगी है जो हजारों की संख्या में सडकों के किनारे अपना जीवन गुजार रहे हैं ।

हम जान कर भी अनजान बने बैठे हैं क्योंकि हमें दुख हो रहा है कि घर परिवार,समाज और सरकार सभी ने इनके साथ सौतेला व्यवहार किया है और इन्हें मिला है तो इनसे सीर्फ दुत्कार जिसका परिणाम आज हम सभी के सामने हैं । हम इनके नाम से करोडों, अरबों रूपए खर्च कर देते हैं फिर भी इन्हें सडक के किनारे रहना पडता है । आखिर यह कैसा न्याय है । समाज में इन्हें चुनाव लडने तक का प्रतिबंध है जो पूरी तरह से यह असंवैधानिक है । आज स्थति ऐसी है कि संविधान के मौलिक अधिकार में जो अधिकार दिए गए है उससे भी ये लोग वंचित हैं । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम सभी जान कर भी अनजान बने बैठे है । आखिर समाज और देश से यह भेदभाव कब मिटेगा यह आने वाला समय ही बतायेगा ।

Wednesday, September 24, 2008

मंहगी हुई शिक्षा

मंहगी हुई शिक्षा

छोटे छोटे मासुम बच्चे जिनके आखो में सपने होते है लेकिन उनका सपना कैसे पुरा हो यही सवाल हम सब के सामने है । ज़िंदगी की एक ऐसी सच्चाई जहा एक तरफ अमीरी तो दुसरी तरफ गरीबी ,पर उम्मीद किसी बडे या अमीर घरो में ही नही गरीब घरो में भी होती है जहाँ हर कोई अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य की कामना करते है ।

ऐसे कई परिवार है जिनकी ज़िंदगी दो वक्त की रोटी जुटाने में ही खत्म हो जाती है लेकिन समय के भागते दौड में उनकी सोच तथा सरकार का एक सफल प्रयास उन गरीब मासुम बच्चो के लिए एक नया सपना लेकर आती है ,वह सरकार की सफल योजना मिड डे अथार्त बच्चो की शिक्षा के प्रति जागरूकता का एक सफल प्रयास है जहाँ बच्चो को दोपहर में भोजन खिलाया जाता है इतना ही नही पढने के लिए कौपी किताब तक दी जाती है ताकि अधिक से अधिक बच्चे इसका फायदा उठा सके ।

दुसरी तरफ बात करे उन प्राईवेट स्कुलो की बात करें तो वो सीर्फ अमीर बच्चों के लिए है क्योंकि यहां सीर्फ अमीर बच्चे ही पढ सकते हैं गरीब नही जो इन गरीब बच्चों से कौसो दुर भाग रही है अर्थात गरीब बच्चो के लिए सपना देखना दिन में तारे गिनने के बराबर है लेकिन जरूरत है इन गरीब बच्चों के लिए हौसला ,हिम्मत और लगन की जो इस बच्चो को सफलता से कोई नही रोक सकता । आए दिन समय इतना भयावह होता जा रहा है कि बच्चे अपने शिष्ठाटार को भुलते जा रहे है जिंदगी के बदलाव ने उन्हे इन चीजों से महरूम कर दिया है जिससे संस्कार उनसे कौसो दुर भाग रही है कारण परिवार का टूटना और बच्चों को कम उम्र में अपनों से दूर रखना ।इतना ही नही बच्चों पर बढते अत्याचार ने हम सभी के सामने एक समस्या खडी कर दी है जहां हम सभी परेशान है चाहे शिक्षक की करतूत हो चाहे उनका कतवर्य से विमुख होना । बच्चे इतने मासुम होते है की इन अत्याचार को भी सह लेते है लेकिन इनकी दर्द की सच्चाई को कोई जानने नही आया । आज देखा जाए तो यह एक गंभीर समस्या बन कर हम सभी के सामने है । इसलिए तो सवाल कई है पर जवाब उन सवालो के सामने कम परते जा रहे है आखिर क्या होगा इन बच्चों का..............।

Saturday, September 20, 2008

ये कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम

ये कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम


जिंदगी इतनी सस्ती हो गयी है जहां सिर्फ दिखते हैं आतंक का मंजर जिसके चपेट मे देश के मासूम लोग । हम बेबस और लाचार हो चुके हैं इस आतंक से जहां लोगों के आंखों में आंसू , बहते हैं खून और हर ओर आंसुओं का सैलाब। टेलीविजन पर रोते हुए चेहरे। अखबारों में खून से लथपथ, चीखते बिलखते चेहरे। हर जगह देखा तो दहशत ही दहशत मानो लोग डर के साये में जी रहे हैं भला ऐसे माहौल में कोई भी व्यक्ति सामान्य कैसे रह सकता।
हर कोई दिल्ली के जज्बे को सलाम कर रहा है तो कोई इसकी दिलेरी की दाद दे रहा है। सडकों पर अपनो का खून बह रहा है तो हर घर से खुशियों के रंग को कोई चुरा कर ले जा रहा है छायी हुई है तो सीर्फ उदासी फिर भी दाद देनी होगी दिल्ली की दिलेरी की कि जिसने आतंकवाद के सामने सिर नहीं झुकाया और संभल गई। ये सभी मन बहलाने की बातें लगती है। जिनके घर के चिराग बुझ गए, किसी ने अपना बेटा खो दिया, किसी ने अपना पति खो दिया तो किसी ने अपना पिता खो दिया, कई अब भी लापता हैं और कई अपने घायल परिजनों को लेकर अस्पताल दर अस्पताल भटकने को मजबूर हैं जो आज तक नही संभल पाए हैं , तो कहां संभल गई है दिल्ली ? शायद वो अब जिंदगी भर नहीं संभल पाए क्योंकि तीन साल पहले हुए धमाकों के पीड़ित भी अभी तक कहां संभल पाए हैं।
दिल्ली दिलेर नहीं है, शायद असंवेदनशील है। शनिवार को धमाका। रविवार को छुट्टी। सोमवार से सामान्य ज़िंदगी मानो कहीं कुछ हुआ ही नहीं। आखीर आप इसे क्या कहेगें, आतंकवाद पर दिल्ली की जीत , इससे क्या फ़र्क पड़ता है। इससे उनका दर्द तो कम नहीं हो जाता, धमाकों ने जिनकी जिंदगी तबाह कर दी है।
हम बारूद की ढेर पर खडे है जहां जिंदगी कब है और कब नहीं कोई नही जानता बस सब कुछ चल रहा है तो भगवान भरोसे । वह दिन मानो हमारे लिए मुश्किल का वक्त था जहां घर से पापा एंव मम्मीजी का फोन प्रत्येक 15 मिनट पर बार बार आता रहता था और सीर्फ एक ही सवाल होता , कहां हो बेटा ? तुम ठीक तो हो ना , मेरी आवाज सुनते ही एक पल के लिए राहत की सांस लेती है कि चलो अभी तक उनका बेटा सुरक्षित है । तब वह गहरी सांस भरते हुए कहती कहीं मत जाना , फोन करते रहना और अपना ख्याल रखना । यह स्थति पुरे दिल्ली और एनसीआर की है। जहां हर आदमी डरा हुआ है क्योंकि हम सभी डरे हुए शहर में डरे हुए लोगों के बीच हम रह रहे हैं। पता नहीं कब कहां क्या हो जाय ? हम सभी इतने डर गये है कि बाजार में कुछ खरीदने में भी डर , मानो खुशियाँ भी इस डर में खो चुकी हो और जी रहे तो संगीनों के साए में डरते हुए। जहां केवल डर, डर और सिर्फ डर ?
आतंक के साये में जहां देखता हूं दहशत नजर आ रही है समझ में नही आता आखिर यह क्या हो रहा है , क्यों हो रहा है और कौन कर रहा है आखिर उसे क्या चाहिए, मासूमों की जान से खेलकर , क्या मिल रहा है उसे । हर जगह खुशियाँ क्यों मातम में बदल रही है जहां चेहरों पर हंसी बन गयी है सीर्फ उदासी । हर जगह देख रहे है तो बारूद ही बारूद जहां लोगों की सुनाई दे रही है तो सिसकियों से भरी आह । मरने वालो को कौन देख रहा है न प्रशासन और नही सरकार आखिर कब तक मरते रहेगें ये निर्दोश लोग क्योंकि प्रशासन हो या सरकार मरने वालों की लगा देते है किमत एक लाख या पांच लाख , क्या ये किमत इनकी जिंदगी से ज्यादा है बस यही तो आज तक होता आया है। अपनो की यादो में लोगों की आंसू सूख गये हैं आंखों से ,आवाज गुम हो गयी है तो दूर-दूर तक आशा की कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड रही है, फिर भी हम सभी जिंदगी को जीये जा रहे हैं पता नही किसके सहारे। आखिर कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम.............।

Tuesday, September 9, 2008

नशा बना समाज के लिए अभिशाप

नशा हमारे समाज के लिए सबसे बडा कलंक है क्योंकि हमारे समाज में नशे का आतंक बढता जा रहा है । जिसका शिकार आज के युवा पीढि हो रहे हैं । उनमें अधिकांश स्कूल कालेज में पढने वाले बच्चे शामिल हैं । नशा का प्रयोग लोग खुशियों या गमों मे दोनों में करते है, जो हमारे लिए नुकशानदेह है । कहते हैं कि नशा करने पर लोगों को सकुन सा अनुभव होता है । उसे भी एक अजीब सी खुशी का एहसास होता है । नशा का प्रयोग अधिक मात्रा मे लोग करने लगे तो वह नशा का गुलाम बन जाता है जिसे नही मिलने पर वह पूरी तरह परेशान हो जाता है जैसे जल के बिना मछली । जो इसके लिए यह नशा मौत बनकर सर पर मडराने लगती है ।

समय के भागते-दौड मे लोग इतने व्यस्त हो गए है कि आए दिन पारिवारीक तथा काम का बोझ के साथ पैसे कमाने की ललक में मानसिक एवं शारीरिक रूप से परेशान हो जाते है । जिसके कारण वे परेशानियों से बचने के लिए नशा का प्रयोग करते हैं । नशा चाहे बीडी-सिकरेट, तम्बाकू ,शराब की हो या अफीम, गांजा हरोइन और स्मैक की सभी तो नशीली पर्दाथ ही हैं जो लोगों को कमजोर बना देता है । नशा के आदि लोग नशा पर इतने आश्रित हो जाते है कि उसके बिना उसकी जिंदगी अधूरा है मानो वह मौत को बुला रहा है । समाज हो या हमारी सरकार इन सभी को देख रही है फिर भी हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं जो नशा को रोकने मे असफल साबित हो रहे हैं । आखिर सवाल यह है कि इस नशा पर अंकुश कैसे लगाया जाए , जहां जान कर भी अनजान बने बैठे हैं, रोकने के बजाए तमाशबीन बने इस हालात को देखे जा रहे हैं । अगर इस समस्या पर ध्यान ना दिया गया तो अगामी दिनों में हमारा भारत नशेडियों का भारत बन जाएगा ।

नशा की चपेट मे पंजाब की तरह दिल्ली भी अछूता नही रहा है ,जहां हाल फिलहाल 500 करोड रूपए का मादक पर्दाथ पकडा जा चुका है वही पंजाब के 80 प्रतिशत लोग नशे की चपेट में है । आज बच्चे, बुढे, नौजवान के साथ महिलायें भी इस नशे की जाल में फसती जा रही है ,आखिर सफल समाज एंव देश का सपना देखना बेमानी होगा । इस नशा पर कई फिल्में बनी पर इसमे सुधार की जगह ये बढता ही जा रहा है ।

नशा पर कई कानून बने लेकिन वह भी असफल रहा आखिर इसका जिम्मेदार और कोई नही हम सभी है जो इसे रोक पाने मे असमर्थ है । एन.डी.पी.सी ने जो कानून बनाए वह सख्त तो है लेकिन उसका सही इस्तेमाल ना होने से अच्छे परिणाम का कल्पना करना दिन में तारे गीनने के बराबर है । आखिरकार नशा हमारे समाज एंव देश के लिए सबसे बडा कलंक है जिसे मिटाने के लिए जरूरत है लोगों के बीच जागरूकता फैलाना । कहते है कि सरकार भी कम दोषी नही है क्योंकि उन्हें इस मादक पदार्थ मे से सबसे ज्यादा आमदनी होती है । तभी कहा गया है कि –

आपने ऐसा मसीहा देखा है क्या ?
जख्म देकर जो पूछे दर्द होता क्या ?

Wednesday, September 3, 2008

दहेज प्रथा

दहेज भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या है । यह समस्या प्राचीन काल से आज तक चलती आ रही है । हजारों युवतियां हर वर्ष दहेज की बलि चढायी जाती है । प्राण नही लिये गये तो पल पल उनको त्रसित किया जाता है । गालियां दे-दे कर विष घोला जाता है । जी हां दोस्तो बात कर रहे हैं दहेज प्रथा की, जिसके आग मे जल रहा है समाज और इस नाटकीय खेल को देख रहा है समाज के वो लोग जो अपने को शिक्षित एंव जागरूक समझते हैं साथ मे तमाशबीन बनी हमारी सरकार । दोष सीर्फ उनका ही नही हमारा भी है जिसे जान कर भी अनजान बने बैढे है । सोच रहे होगें, जब एक बाप अपने बेटी की उज्जवल भविष्य का सपना देखता है तो यही सोचता है कि हमारी बेटी राज करेगी लेकिन वह सपना उसके लिए मौत बन जाती है । हर पिता अपनी बेटी के लिए अच्छा ही सोचता है लेकिन हकीकत कुछ और तभी तो लडकियों के साथ प्रताडना ही उनका सपना बन जाता है । विवाह का ये सुन्दर सुहावना स्वप्न, पल भर मे ही नारकीय वास्तविकता मे बदल जाता है । आमतौर पर शादियां परिवार के बुजुर्ग तय करते हैं, लेकिन वह रीति भी छुटती जा रही है, जिसका शिकार आज के आधुनिक बच्चे हो रहे है।

देश मे दहेज प्रथा को एक समाजिक कुरीति माना जाता है जिसका शिकार आज की महिलायें होती है । दहेज के कारण सुन्दर से सुन्दर और योग्य से योग्य पुत्री का पिता भयभीत और चिन्तित है तथा जिसके कारण हर भरतीय का सिर लज्जा और ग्लानि से झुक जाता है। दहेज के अभाव में पिता को मन मारकर अपनी लक्ष्मी सरीखी़ बेटी को किसी बूढ़े, रोगी, अपंग, और पहले से ही विवाहित तथा कई सन्तान के पिता के हाथ सौंप देना पड़ता है। मूक गाय की तरह बेटी को यह सामाजिक अनाचार चुपचाप सहन करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त केवल एक ही विकल्प उसके पास बच रहता है अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दे। परिणाम ये हुआ कि अनेक निर्धन माता-पिता बेटी के जन्म लेते ही क्रूरता पू्र्वक बेटी का गला दबाकर हत्या करने लगे। समाज इस अन्याय को देखता रहा कारण साफ है अशिक्षा का होना । कहा जाता है कि शिक्षा के प्रति जागरूकता बढी, कानून सख्त हुए फिर भी दहेज प्रथा घटने के बजाए बढती जा रही है । समाज मे जब तक गरीबी रहेगी तब तक नारी समस्याओं के आंसू गिरते रहेगें ।

Tuesday, September 2, 2008

मानसिक रोग-बचाव

बीमारियों से बचने के लिए हम शरीर का बहुत ध्यान रखते हैं। तरह-तरह के उपाय करते हैं। सुबह उठना, सैर करना, दौड़ना, व्यायाम करना, योग करना, ठहाका लगाना और पता नहीं क्या-क्या। आजकल लोग दिनभर के खाने-पीने पर विशेष ध्यान रखता है। जो नहीं रखते वो परेशान होते हैं, और शारीरिक कष्ट झेलना पडता है। यही कारण है कि कोई भी समाचारपत्र हो या टीवी चैनल, स्वास्थ्य संबंधी चर्चाओं से भरे पड़े रहते हैं। माता-पिता भी बच्चे को अच्छे से अच्छा खिलाने के फेर में रहते हैं। कभी तो बच्चे के साथ दूध पिलाने की जोर-जबरदस्ती की जाती है। अभी पिछले सप्ताह अमेरिका की एक खबर मे यह पता चला है कि वहां के स्कूली छात्र-छात्राएं ब्रेक फ्रूड इसे खाकर मोटे होते जा रहे हैं जिससे यह बीमारी उनकी राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। असल में मोटापे से कई रोगों की शुरुआत होती है। शारीरिक रोग होने पर लोगों को अनेक कष्टों से गुजरना पडता है । फिर भी जीभ का स्वाद चंचल है, वो हमेशा तरह-तरह के पकवान खाने के चक्कर में रहता है। कारण एक ही है, हम एक हद के बाद अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर पाते। हम सब जानकर भी अनजाने बन जाते हैं। परिणामस्वरूप बीमार पड़ जाते हैं। और फिर भागते हैं डाक्टर के पास।सवाल अनेक हैं कि हम मन और दिमाग के स्वास्थ्य के लिए क्या करते हैं? क्या हम इनका देखभाल सही तरह से करते हैं ? शायद नहीं। l तभी तो इसका सीधा असर शरीर पर पड़ता है वहीं दिमागी बीमारियां खुद को नहीं दूसरों को अधिक तंग करती हैं। क्या आपने कभी अत्यधिक गुस्सा करने वाले, जरा-जरा सी बात पर रोने वाले, हर किसी से घृणा करने वाले, ऊंची-ऊंची आवाज में बोलने वाले, बात-बात पर लड़ने वाले, छोटी-सी बात पर परेशान हो जाने वाले या फिर डिप्रेशन में रहने वाले लोगों को स्वयं अस्पताल जाकर अपना इलाज करवाते देखा है? नहीं, बिल्कुल नहीं। जबकि ये भी एक किस्म की बीमारियां ही हैं।आधुनिक जीवनशैली में मानसिक समस्यायें बढ़ती जा रही हैं। परिणाम सामने है। वैवाहिक जीवन तबाह हो रहा है। तलाक बढ़ रहे हैं। छोटी उम्र में बच्चे मां-बाप से अलग हो रहे हैं। मगर आदमी अस्पताल या साइक्लोजिस्ट के पास तभी जाता है जब उसके परिवार वाले उसे खुद लेकर जाते हैं क्योंकि कोई पागल खुद को कभी पागल नहीं कह सकता है? तभी तो बाल यौन शोषण, बच्चों की हत्या, अप्राकृतिक यौन संबंध, हिंसा फैलाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये विकृतियां आधुनिक युग की देन हैं। मगर क्या कभी किसी पढ़े-लिखे समझदार को भी इसका इलाज करवाते सुना है? नहीं। कारण साफ है कि कोई भी इस पहल को नही कर सकता है ।

आए दिन यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। हर दूसरा आदमी मानसिक रूप से ग्रसित रहने लगा है अपनी जिंदगी को तनाव में जीने के लिए मजबूर है फिर भी हम उतने चिंतित नहीं हैं जितना होना चाहिए। हम गठिला शरीर बनाने की बात तो अक्सर करते हैं मगर अपनी परेशानियों को दरकिनार कर रोगों को हावी होने पर मजबूर करते हैं। जबकि बेहतर समाज के लिए मनुष्य के शरीर से अधिक उसके मन-मस्तिष्क के स्वस्थ होने की आवश्यकता है। तभी समाज का सही सकारात्मक विकास संभव है। और इसमें रहने वाले आदमी तभी सुरक्षित हैं। सुख-शांति का सही एहसास भी स्वस्थ मस्तिष्क से ही संभव है। लेकिन हम दिमाग के स्वास्थ्य की चिंता बिल्कुल नहीं करते।

आज के युग में मनोरंजन में व्यवसाय के नाम पर मन-मस्तिष्क को पहुंचने वाली सामग्री और, जहरीली, अनैतिक असमाजिक होती जा रही है। परिणाम है हम मानसिक रूप से और अधिक बीमार होते चले जा रहे हैं। हम पर पाश्विक प्रवृत्ति हावी हो रही है और हम अमानवीय होते जा रहे हैं। अकेलापन, घबराहट, मानसिक विकृतियां, चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन बढ़ता चला जा रहा है। हर परिवार में कोई न कोई किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त है। आज का आदमी शांत नहीं है, सुख का भोग नहीं कर रहा। सिर्फ दौड़ रहा है। परिवार बिखर रहे हैं। समाज उजड़ रहा है। जीवन बाजार बन चुका है। हमने शरीर के व्यायाम के लिए तो कई उपाय ढूंढ़ लिये। जिम, योग, व्यायामशाला और जाने क्या-क्या खोल दिये। लेकिन मानसिक ऊर्जा के संतुलन के लिए हम मौन हैं। आज के सफल आदमी को शारीरिक व्यायाम करते दिखाया जाता है। शारीरिक आकर्षण वाले आज हमारे समाज के हीरों हैं। खेल की दुनिया, फिल्मी दुनिया हर जगह छायी हुई है। सभी इन स्टारों को देखकर शरीर के रख-रखाव पर जोर देते हैं। और क्यूं न करें, उनका आदर्श भी तो यही सब है । मगर क्या इन आदर्शों को कोई मानसिक कार्य करते सुना है? नहीं। देखा-देखी हर घर में जिम खोलना फैशन बन गया है। हम सिर्फ शरीर बना रहे हैं अर्थात हम अपने समाज को अखाड़ा बना रहे हैं। बहुत अधिक मन बेचैन हुआ तो शांति के लिए लिए वही मंदिर ,मस्जिद या कोई शांति स्थल । वहां भी लोगों को चैन नही है ।आज के समय में कला, संगीत, नाटक, साहित्य, गायन भी लुप्त होते जा रहे हैं तभी तो इसे भी बाजारू बना दिया गया है। परिवार में मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ने की सामग्रियों कभी नहीं देखते। वो तो खुद टीवी से चिपके रहते हैं। कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है। मगर यह भी सत्य है कि शरीर की अधिकांश बीमारियां दिमाग के कारण होती है। मस्तिष्क स्वस्थ होगा तो शरीर अपने आप स्वस्थ रहेगा। अन्यथा सारे बिना दिमाग के हो जाएंगें तो कल्पना करें क्या होगा ? तभी तो जरूरत है समय के साथ मन को शांत रखने की जिससे हम सभी इस बीमारी से बच सकते हैं ।

Monday, September 1, 2008

जिंदगी-खुशी और गम

सफर मे धूप तो होगी, जो चल सके तो चलो
सभी है भीड मे, तुम निकल सको तो चलो
यहां किसी को रास्ता नही देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो ।


मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया,
बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया,
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया,
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया,
गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया

Saturday, August 30, 2008

समय ने बदला रिश्ते की पहचान(रक्षाबंधन)

कल-कल करती बहती जीवन रूपी नदी में मधुर तरंगों की तरह आती लहरों की तरह हैं पर्व व त्योहार। भारत क्योंकि परंपरावादी देश है, यहां पर्वो और त्योहारों का अपना अलग महत्व है। व्यक्ति को व्यक्ति से जोडने और संस्कारों से बांधने का इससे बेहतर विकल्प और कोई हो भी नहीं सकता। यह रेशमी धागा हर साल आपको अपने रिश्ते के मूल्यों को याद कराने के लिए बांधा जाता है। रक्षा का अर्थ है सुरक्षा व बंधन है रिश्ता निभाने का संकल्प। केवल सहोदर रिश्तों की याद दिलाने वाला पर्व नहीं है यह, बल्कि पूरे देश को एक साथ जोडने में इस पर्व ने हमेशा ही सक्षम भूमिका निभाई है। पौराणिक मान्यता क अनुसार यह पर्व देवासुर संग्राम से जुडा है। जब देवों और दानवों के बीच युद्ध चल रहा था और दानव विजय की ओर अग्रसर थे तो यह देख कर राजा इंद्र बेहद परेशान थे। दिन-रात उन्हें परेशान देखकर उनकी पत्नी इंद्राणी (जिन्हें शशिकला भी कहा जाता है) ने भगवान की अराधना की। उनकी पूजा से प्रसन्न हो ईश्वर ने उन्हें एक मंत्रसिद्ध धागा दिया। इस धागे को इंद्राणी ने इंद्र की कलाई पर बांध दिया। इस प्रकार इंद्राणी ने पति को विजयी कराने में मदद की। इस धागे को रक्षासूत्र का नाम दिया गया और बाद में यही रक्षा सूत्र रक्षाबंधन हो गया।
इतिहास गवाह है
राखी का सबसे पुराना इतिहास हमें 300 ई.पू. में मिलता है। जब एलेक्जेंडर ने भारत पर चढाई की। राजा पुरु के शौर्य व पराक्रम से विदेशी एलेक्जेंडर अभिभूत था, तभी उसकी विदेशी पत्नी ने स्थानीय लोगों से राखी के बारे में सुना। तुरंत उनके दिमाग में एक विचार कौंधा और उन्होंने राजा पुरु को ससम्मान राखी भेजी। पुरु ने उस राखी को सिर माथे लगा उन्हें बहन माना और युद्ध क्षेत्र में इस राखी के बंधन की पवित्र भावना का पूरा ध्यान रखा।
हिंदुओं द्वारा रक्षाबंधन एक त्योहार के रूप में मनाया जाता रहा है। पुराने समय में इस बंधन से भाई-बहन के पावन रिश्तों की गांठ को और मजबूती प्रदान की जाती थी तथा अपनी रक्षा का वादा भी लिया जाता था। लेकिन चित्तौड की विधवा महारानी कर्मावती ने जब अपने राज्य पर संकट के बादल मंडराते देखे तो उन्होंने गुजरात के बहादुर शाह के खिलाफ मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेज मदद की गुहार लगाई और उस धागे का मान रखते हुए हुमायूं ने तुरंत अपनी सेना चित्तौड रवाना कर दी। इस धागे की मूल भावना को मुगल सम्राट ने न केवल समझा बल्कि उसका मान भी रखा।
गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने राखी के पर्व को एकदम नया अर्थ दे दिया। उनका मानना था कि राखी केवल भाई-बहन के संबंधों का पर्व नहीं बल्कि यह इंसानियत का पर्व है। टैगोर ने पूरे समाज में एकता और इंसानियत को बढावा देने के लिए रक्षा के बंधन को माध्यम बनाया। उनका विचार था कि समाज के सभी सदस्यों को एक-दूसरे का खयाल रखना चाहिए और दूसरों की मदद करनी चाहिए। यह उस समय की बात है जब भारत पर अंग्रेज शासन कर रहे थे और 1905 में उन्होंने बंगाल विभाजन का फैसला ले लिया था।
उस समय रबींद्रनाथ ने इस माध्यम से हिंदू और मुसलमानों के बीच भाईचारा बढाने, प्यार और एकता की भावना को पनपने देने के लिए राखी का सहारा लिया। इसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि हिंदू और मुसलमान एकजुट हों और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मोर्चा लें। उन्होंने इस पर्व को भाईचारे की भावना के प्रसार के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने देश के भिन्न संप्रदायों व जातियों के लोगों को राखी के माध्यम से एक नई सोच व दिशा दी। उन्होंने इसके जरिये धर्म, भाषा, वर्ग, समुदाय, लिंग और जाति के भेद को दूर करने की कोशिश की। राखी के धागों से पूरे भारत को एक करने का संदेश दिया। इसी भावना के तहत उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की।
इसमें संदेह नहीं कि सहोदर रिश्तों से ऊपर उठकर रक्षाबंधन की भावना ने हर समय और जरूरत पर अपना रूप बदला है। जब जैसी जरूरत रही वैसा अस्तित्व उसने अपना बनाया। केवल बहन ने भाई को ही नहीं, रक्षा के नाम पर पत्नी ने पति और हिंदू स्त्री ने मुसलमान भाई की कलाई पर इसे बांधा। इस नजरिये से देखें तो एक अर्थ में यह हमारा राष्ट्रीय पर्व है।
पहले और अब के रिश्ते
संबंधों की बात करें तो ये पहले जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। पहले हमारे जीवन का केंद्र बिंदु हमारा घर-परिवार ही हुआ करता था। अधिकतर संयुक्त परिवारों में लोग एक साथ रहते थे और कोई भी त्योहार पूरा परिवार एक साथ मिल कर मनाता था। किसी खास दिन का परिवार के सभी सदस्य बेसब्री से इंतजार करते थे। दरअसल रिश्तों और मानवीय भावनाओं को उत्सव के रूप में मनाना ही राखी है। अपने भाई-बहन के प्रति प्रेम और उसका खयाल रखना ही इसका आधार है। यह पूरे परिवार को एक साथ जोडता है और यही एकजुटता उत्सव के रूप में इस दिन मनाई जाती है।
आज समय और सोच ने इस रिश्ते को प्रभावित किया है। कहीं हत्या तो कहीं दुष्कर्म जैसी घटनाएं सुनने में आती हैं। रिश्तों की गरिमा खोती जा रही है। लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि कुछ अपवादों के कारण सारी मर्यादा, पवित्र भावना तथा अमूल्य रिश्ते को कटघरे में नहीं खडा किया जा सकता। फिर भी यह जरूरी था कि स्त्रियों को उनका पूरा हक मिले।
कानून पर एक नजर
सुप्रीम कोर्ट की वकील कमलेश जैन का कहना है कि यह ठीक है कि पुरुषवादी समाज में स्त्रियों की स्थिति हमेशा शोचनीय रही। पहले पिता, फिर पति और भाइयों पर वह आश्रित रही। इस स्थिति को देखते हुए यह कानून बना कि पैतृक संपत्ति पर बहनों का भी भाइयों के समान पूरा अधिकार हैं। यदि इस कानून की जमीनी सच्चाई पर गौर करें तो यह साफ दिखाई देगा कि इससे स्थितियां बेहतर होने के बजाय और बिगडी ही हैं। अकसर भाई खुशी से बहनों को कुछ नहीं देना चाहता। यहां तक कि कुछ घटनाएं ऐसी भी सामने आई जहां बंटवारे के डर से भाई ने बहन को मरवा या मार डाला। होता यह है कि यह बात बचपन से ही बच्चों को समझाई जाए तभी इसके अच्छा परिणाम सामने आ सकते हैं। क्योंकि यह समस्या मूलरूप से मानसिकता की है। अचानक यह कहना कि बहन को हिस्सा दो, किसी आघात से कम नहीं। दूसरी सच्चाई यह भी है कि कोर्ट-कचहरी में जाकर भाई के खिलाफ खडे होकर अपने अधिकार मांगने का साहस भी बहुत कम स्त्रियों में है। इससे जीवन भर के लिए संबंध खराब हो जाते हैं।
इस संबंध में नई दिल्ली की मनोचिकित्सक जयंती दत्ता का कहना है कि यदि आरंभ से ही बच्चों को इस दिशा में सही रूप से दिशा निर्देश दिए जाएं तो उसी दिशा में आपका दिमाग काम करेगा। अचानक कोई मुद्दा उठ कर ऐसा आए जो आपके लिए एकदम नया हो और उसके लिए दिमागी रूप से आप बिलकुल तैयार न हों तो आधात तो लगेगा ही। जब एक परिवार, एक माता-पिता, एक माहौल व एक थाली में खाकर भाई-बहन बडे होते हैं तो फिर संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवाद क्यों? सब कुछ कल तक साझा था तो आज क्यों नहीं? अपनी सोच को विकसित करने की जरूरत है। हो सकता है कि आर्थिक रूप से बहन की आवश्यकताएं भाई से कहीं ज्यादा हों या यह भी हो सकता है कि वह इतनी समर्थ या उदार हो कि वह भाई और पिता से मदद न लेना चाहे। लेकिन वह चाहे या उसका हक देने के लिए भाई को अपनी ओर से तो तैयार रहना ही चाहिए।
आधुनिक संदर्भ
कामकाज के सिलसिले में या नौकरी व व्यवसाय के कारणों से भाई-बहन के बीच दूरियां बढी हैं। एकल परिवारों के बढते चलन तथा संयुक्त परिवारों के विलय से रिश्ते सिमट कर भाई-बहन तक रह गए हैं। पहले जहां एक ही छत के नीचे ताऊ, चाचा, दादा-दादी आदि अनेक रिश्ते होते थे, सभी के बच्चे भाई-बहन की श्रेणी में आते थे। यह पता ही नहीं चलता था कि कौन सगा है था कौन चचेरा। यह जुडाव बेहद मजबूत होता था। आज हालांकि संपर्क सूत्रों में आए क्रांतिकारी बदलावों से दूरियां सिमट गई हैं। एसएमएस, फोन, मेल और इंटरनेट के जरिये दूरियां काफी हद तक सिमट गई है। जब चाहा फ्लाइट पकडी और दूरियां नजदीकियां बन जाती हैं। केवल विदेशों में रह रहे भारतीय ही नहीं, विदेशी भी इस त्योहार का महत्व जानने समझने लगे हैं। पहले जहां महीनों पहले से अपने भाई को राखी भेजने के लिए डाक घर की मेहरबानी पर निर्भर रहना पडता था, वहीं अब इंटरनेट के जरिये जब चाहे मिनटों में अपने संदेश, राखी व तोहफे कुछ भी भेज सकते हैं। वेब कैमरा लगा कर जब चाहे चलते-फिरते जीते-जागते भाई-बहन को आमने-सामने देख सकते हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि उनके परिवार के लोग समुद्र पार बैठे हैं। जब जी चाहा जी भर देख लिया और मन भर बातें कर लीं। लेकिन आज समय के साथ रिश्तों के मायने भी बदले हैं। आज भाई ही नहीं बहन भी अपने कर्तव्यों को लेकर उतनी ही सजग है। आज वह पहले की तरह लाचार और कमजोर नहीं कि हर समय अपने भाई को अपनी रक्षा के लिए बुलाए।
बदली भूमिका
पहले जहां सुरक्षा का वादा भाइयों का ही होता था, वहीं आज बहन भी उतनी ही दृढता से भाई का साथ देने के लिए तैयार रहती है। आज की बहन पहले की तरह लाचार और बेबस नहीं। वह पढी-लिखी और सक्षम है। रिश्तों की बखूभी समझ उसे है, कानून और अधिकारों के प्रति वह पूरी तरह सजग है। वह इतनी परिपक्व है कि उसे जरूरत नहीं तो वह उदारता से अपने भाइयों के लिए सब अधिकार स्वेच्छा से छोड देती है।

सपनो की उडान

कुछ लोग कहते हैं,तुम सफल नही हो सकते या तुम नही कर सकते । इसलिए उसे करके दिखा देना ही जिंदगी की सबसे बडी कामयाबी है ।

इक नयी किरन फूटेगी
इक नया सवेरा जागेगा ।
धरती पे खुलेगा आसमां
इक रोज अंधेरा पिघलेगा ।
सन्नाटा जिससे टूटेगा
संसार ये जिससे गूजेगा ।
वह सुबह हमी से होगी
इक दिन सारी दुनिया की पहचान बनेगे ।
हर महफिल की शान बनेगे
धरकते दिलों के जज्बात बनेगे ।
खामोशी की बात बनेगे
वो सुबह हमारी ही होगी ।


विकास कुमार श्रेष्ठ
(हर पल जिंदगी)

आजाद भारत के सफर का घटनाक्रम

आजाद भारत के सफर का घटनाक्रम

सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा....जी हां, हमारा वतन, हमारा देश अब 61 वर्ष का हो चला है। देश के एक अरब से अधिक से नागरिक आजाद फिजाओं में सांस ले रहे हैं.. और हम दो हजार बीस तक देश को विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़ा करने का सपना देश रहे हैं। ये सपना सच होगा और आने वाली नस्लें यह कह सकेंगीं कि हमें विरासत में आजाद हिन्दुस्तान मिला है। अगर इस शस्य-श्यामला भूमि की उपलब्धियों को खंगाला जाए तो हमने कई स्वर्णिम उपलब्धियां हासिल की हैं। साथ ही, काफी कुछ ऐसा रहा है जिसका दर्द हमें आज तक सालता है।

पिछले 61 सालों पर नजर दौड़ायें तो ऐसा नहीं है कि हमने सिर्फ कामयाबियां ही हासिल की हैं...हमने कुछ गवाया भी है।

हमारी कहानी शुरू होती है 15 अगस्त 1947 से जब देश आजाद हुआ लेकिन आजादी की कीमत हमें देश के विभाजन की कीमत से चुकानी पड़ी. साथ ही, पंजाब और बंगाल में भीषण दंगे हुए। अभी हम संभल ही रहे थे कि 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी कबाइलियों ने देश पर हमला किया। हमने मुंहतोड़ जवाब दिया। 26 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर को भारत का हिस्सा मान लिया और कश्मीर के विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।
कश्मीर की ये खुशी मिली ही थी कि 30 जनवरी आते आते उस महात्मा की हत्या कर दी गई जिसके लिए कहा जाता है ...दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। बापू को 30 जनवरी की शाम 5 बजकर 30 मिनट पर दिल्ली के बिड़ला हाउस में गोली मार दी गई। पूरा देश शोक में डूब गया।

1949 आते आते पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम हुआ और 26 जनवरी1950 को भारत गणतंत्र बना... और इसी वर्ष हमने पहले गृहमंत्री और लौह पुरुष वल्लभ भाई पटेल को खो दिया...1951 की शुरुआत में देश से जमींदारी प्रथा का अंत हो गया, लेकिन 1956 में देश में भाषाई समस्या की वजह से गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों का गठन हुआ।

10 अक्टूबर 1962 को देश को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती के साथ जूझना पड़ा और चीन के साथ 42 दिन के युद्ध के बाद चीन ने ही एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की। इसके बाद, दो साल हंसी खुशी से गुजर गए, लेकिन, 27 मई 1964 को देश के एक युग का अंत हो गया और हमने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन को झेला,,साथ ही, जय जवान जय किसान का नारा देने वाले महानायक लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया। इसके बाद शास्त्री जी की अगुवाई में देश ने 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान को नाको चने चबबाए और संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद युद्ध विराम हुआ। 1966 में ताशकंद समझौता किया गया और ताशकंद में गुदड़ी के लाल शास्त्री जी का निधन हो गया। इसके बाद देश में प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश की बागडोर संभाली, उधर रीता फारिया देश की पहली विश्व सुंदरी बन गई। इसी साल भारत दुनिया का सबसे ज्यादा दूध उत्पादन करने वाला देश बन गया। 1967 के आते आते देश में हरित क्रांति की शुरूआत हुई...1971 में देश ने पाकिस्तान के साथ तीसरा युद्ध लड़ा और पाकिस्तान के नब्बे हजार सैनिकों ने देश के वीरों सामने हथियार डाल दिए। 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता सम्पन्न हुआ...47 में आजाद हुआ बालक भारत अब जवान हो चला था और पच्चीस साल का कड़ियल जवान ने दुनिया को अपनी जवानी का एहसास कराया 18 मई 1974 को, जब देश ने पहला परमाणु विस्फोट किया...और यहीं से हम परमाणु शक्ति बन गए।

25 जून 1975 को देश ने आपातकाल का दंश झेला और एक हजार राजनैतिक विरोधियों को गिरफ्तार किया गया। 19 महीने के बाद 1977 में आपातकाल समाप्त हुआ और यहीं से भारतीय राजनीति ने करवट ली और कांग्रेस पहली बार लोकसभा चुनाव हारी...और जनता पार्टी के नेतृत्व में देश में पहली जनता सरकार का गठन हुआ। 1969 में जनता सरकार गिरी और देश में सातवें आम चुनाव हुए। कांग्रेस 1980 के आते आते कई गुटों में बंट गई। आम चुनाव में इंदिरा कांग्रेस की जीत हुई और इंदिरा गांधी दुबारा देश की प्रधानमंत्री बन गईं। इसी वक्त भारत ने पहला स्वनिर्मित उपग्रह एएसएलवी का सफल परीक्षण किया और 19 नवंबर 1982 को देश ने पहली बार रंगीन टेलीविजन पर एशियाई खेलों का सीधा प्रसारण देखा। 1983 के आते आते भारतीय क्रिकेट ने एक धमाका किया और भारत क्रिकेट का बादशाह बन बैठा। कपिलदेव निखंज की कप्तानी में देश ने लंदन के लॉर्डस में ये गौरव पाया।

31 अक्टूबर 1984 को देश ने भारी सदमा झेला जब हमें श्रीमती इंदिरा गांधी को बेवक्त गंवाना पड़ा। उनकी हत्या के बाद देश में दंगे भड़के और समाज की नब्ज भांपते हुए कांग्रेस ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया। 1986 के आते आते देश राममय हो गया और हर घर में रविवार की सुबह रामानंद सागर की रामायण देखी जाने लगी। 1989 में लोकसभा चुनाव में बोफोर्स तोपों के सौदे की दलाली का मुद्दा छाया रहा..और भारतीय राजनीति में नया परिवर्तन हुआ..कांग्रेस की हार के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। इसी वर्ष कश्मीर में आतंकवाद तेजी से पनपा। इसके बाद 13 अगस्त 1990 के आते आते भारतीय समाज में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई। आरक्षण के समर्थन और विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए। भाजपा की समर्थन वापसी से वीपी सिंह सरकार गिरी और सिर्फ चार महीने के लिए युवा तुर्क चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने। 21 मई 1981 के लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान देश ने युवा नेता राजीव गांधी को एक आत्मघाती हमले में खो दिया। इसी साल पीवी नरसिंह राव ने देश की बागडोर संभाली और देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। 1992 के आते आते देश का समाज दो हिस्सों में बंट गया और अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। 1993 को मुंबई ब्लास्ट हुए और सैंकड़ों लोग मारे गए। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने और भाजपा की सरकार विश्वास मत हासिल करने में नाकाम रही। लेकिन, कांग्रेस के समर्थन से देश की गद्दी एचडी देवगौड़ा ने संभाली। 1998 के आम चुनावों में भाजपा की अगुवाई में अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने.... और 11 से 13 मई के बीच भारत ने 25 साल बाद दूसरा पोखरण परमाणु विस्फोट किया..और दुनिया को अपनी ताकत का लोहा मनवा दिया। 1999 में वाजपेयी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ लाहौर शांति घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। इसी साल भारत ने मई महीने में कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तान से चौथी लड़ाई लड़ी और दुश्मन को मार भगाया। वर्ष 2000 के आते आते देश की जनसंख्या ने एक अरब का आंकड़ा छू लिया। इसी साल देश में राज्यों की संख्या 28 हो गई...झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल जैसे नए राज्य बनाए गए।

26 जनवरी 2001 को देश ने गुजरात के भुज में भयंकर भूकंप झेला जिसमें तीस हजार लोग मारे गए। तेरह दिसंबर को देश में लोकतंत्र के मंदिर संसद पर आतंकवादी हमला झेला। इन सबके बीच देश ने हिन्दुस्तान को दुनिया की ताकत बनाने वाले मिसाइल मैन डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम को बारहवें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित किया। इसके बाद देश ने कई जगहों पर आतंकवादी धमाकों का सामना करते हुए साल दो हजार तीन में आतंकवादियों के साथ सीमा पर युद्धविराम की एकतरफा घोषणा की। साल दो हजार चार के आते आते देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने सिंह इज किंग मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। इसी साल सुनामी ने दक्षिण भारत में कहर बरपाया और हजारों लोग असमय ही काल के गाल में समा गए। 2005 के आते आते भारत में मुजफ्फराबाद और दिल्ली के बीच साठ सालों में पहली बार सीधी बस सेवा शुरू की गई। 29 अक्टूबर को दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में बासठ लोग मारे गए। 2006 का सूरज देश में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लेकर आया। इसी साल अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ असैनिक परमाणु करार पर सहमति बन गई। 2007 के अप्रैल में भारत ने पहला व्यावसायिक अंतरिक्ष यान प्रक्षेपित किया जो अपने साथ इटली के एक उपग्रह को लेकर गया। 24 सितंबर को महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी में देश ने ट्वेंटी-ट्वेंटी का पहला विश्व कप अपने नाम किया। 61 सालों की सबसे बड़ी उपलब्धि भी इसी साल मिली जब देश ने आर्थिक दुनिया में क्रांति करते हुए नौ दशमलव चार फीसदी की विकास दर हासिल की। जुलाई में देश ने प्रतिभा देवी सिह पाटिल को पहली महिला राष्ट्रपति बनाया और 2008 में देश ने आजादी के बाद 61 सालो का सूखा खत्म करते हुए ओलंपिक में पहला स्वर्ण पदक जीता, जिसका श्रेय अभिनव बिद्रा को जाता है। देश के सपूत ने दस मीटर रायफल स्पर्धा में देश को ओलपिक खेलो में पहली व्यक्तिगत सफलता हासिल की.........

61 साल का भारत आजादी के पथ पर आगे बढ़ रहा है। खुशी, गम और खट्टी मीठी यादों के बीच सुख भी हमारा है और दुख भी. जरूरत है तो बस इस विरासत को संभालने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की।
...कीजिये थोड़ा सा इंतजार....