Friday, September 10, 2010

कप्तान से कैप्टन तक का सफर

क्रिकेट के मैदान पर चौके-छक्के उड़ाने वाले और देश में इस खेल के भगवान कहे जाने वाले, अपने बल्ले से क्रिकेट जगत की बुलंदियों को छू चुके स्टार बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के लिए भारतीय वायु सेना [आईएएफ] में ग्रुप कैप्टन का मानद पद से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं रैंक पाने के बाद सचिन तेंडुलकर विश्व के आधुनिकतम युद्धक विमान सुखोई 30 एमकेआई में उड़ान भड़ने के लिए बेकरार हैं। तेंदुलकर पहले ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें आईएएफ ने इस पद से सम्मानित किया है और वह यह सम्मान हासिल करने वाले पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिनका उड्डयन क्षेत्र से कोई संबंध नही है।
इससे पहले 2008 में भारत के विश्व कप विजेता कप्तान कपिल देव को प्रादेशिक सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के मानद पद से सम्मानित किया गया था। रिकार्डों के बादशाह 37 वर्षीय तेंदुलकर को वायुसेना में उसके ब्रांड एंबेसडर के तौर पर शामिल किया गया है। आईएएफ प्रमुख एयर चीफ मार्शल पी वी नायक ने वायुसेना आडिटोरियम में रंगारंग समारोह में उन्हें इस पद से सम्मानित किया। तेंदुलकर ने सम्मान हासिल करने के बाद कहा, 'वायुसेना से सम्मानित होना बड़ी खुशी और सम्मान की बात है। जो मैं सोचता था वह आज सच हो गया। मैं वायुसेना से जुड़कर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मैं युवाओं से वायुसेना से जुड़ने और देश की सेवा करने का आग्रह करता हूं।'
इससे पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 23 जून को इस स्टार बल्लेबाज को वायुसेना के मानद पद से सम्मानित करने को मंजूरी दी थी। तेंदुलकर को यह सम्मान देश की सेवा में योगदान देने वाली प्रमुख हस्तियों को सैन्य बलों के मानद पद से सम्मानित करने के प्रावधान के तहत दिया गया है। वायुसेना का मानना है कि तेंदुलकर के जुड़ने से युवा पीढ़ी आईएएफ से जुड़ने और देश की सेवा करने के लिए प्रेरित होगी। नायक ने कहा, 'युवा उनसे [तेंदुलकर] प्रेरित हैं। मेरा मानना है कि इससे युवा वायुसेना से जुड़ने के प्रति प्रेरित होंगे। आईएएफ को बेहतर बनाने के लिए उपाय करना मेरा कर्तव्य है और सचिन के जुड़ने से वायुसेना के बारे में लोगों में जागरूकता लाने में मदद मिलेगी।'


तेंदुलकर मानद रैंक से सम्मानित होने से पहले आईएएफ से जुड़ने की प्रक्रिया से परिचित हुए और उन्होंने मूल सैन्य अभ्यास और ड्रिल का प्रशिक्षण लिया।
सचिन से पहले आईएएफ ने 21 हस्तियों को मानद पद से सम्मानित किया है
1.जवाहर यशवंत राव(जव्हार के राजा) फ्लाइट लेफ्टिनेंट, 1944
2.रूप चंद्र(रॉयल एयर फोर्स अधिकारी) विंग कमांडर,1947
3.महाराजा मानवंत सिंह(जोधपुर के राजा) ग्रुप कैप्टन, 1948
4.जे.ब्युमॉन्ट(रॉयल इंडियन एयर फोर्स) ग्रुप कैप्टन,1950
5.सर थॉमस एमहर्स्ट(रॉयल एयर फोर्स) एयर मार्शल,1950
6.नवाब हमीदुल्लाह(भोपाल के नबाव) एयर वाइस मार्शल,1951
7.सर प्रताप चंद्र(मयूरभंज के महाराजा) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1951
8.जीई गिब्स(रॉयल एयर फोर्स अधिकारी) एयर मार्शल,1954
9.महाराजा उमेंद्र सिंह(जोधपुर के महाराजा) एयर वाइस मार्शल,1955
10.राजा नरेंद्र महापात्र(रणपुर के महाराजा) फ्लाइट लफ्टिनेंट,1956
11.एनआर बत्रा, स्क्वाड्रन लीडर,1962
12.एएस संधू(जन संपर्क अधिकारी) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1971
13.एसके कुलकर्णी(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1971
14.सी.रमानी(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1971
15.एसडी जडेजा(जामनगर के महाराजा) विंग कमांडर,1973
16.जेआरडी टाटा(ग्रुप कैप्टन,1948,एयर वाइस मार्शल1974
17.एचएस मलिक(उच्चायुक्त) विंग कमांडर,1949-ग्रुप कैप्टन,1975
18.यदु नंदन चतुर्वेदी(जन संपर्क अधिकारी) फ्लाइट लेफ्टिनेंट,1982
19.अभय देव(जन संपर्क अधिकारी) स्क्वाड्रन लीडर,1989
20.सरदार सुरजीत(पटियाला के महाराजा) एयर कमोडोर,1990
21.विजयपत सिंघानिया(उद्योगपति) एयर कमोडोर,1990
कपिल पाजी भी बन चुके हैं कर्नल
साल 2008 में 1983 का विश्वकप जिताने वाले कप्तान कपिल देव को आर्मी के लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से नवाजा गया था। इससे पहले आईएएफ ने उद्योगपति और विमानन के दिग्गज विजयपत सिंघानिया को एयर कमोडोर की उपाधि से सम्मानित किया थाकुछ इस तरह होती हैं एयर फोर्स के अफसरों की रैंक्स
11. पायलट ऑफिसर
10. फ्लाइंग ऑफिसर
09. फ्लाइट लैफ्टिनैंट
08. स्काड्रन लीडर
07. विंग कमांडर
06. ग्रुप कमांडर- (सचिन को मिलने वाली मानद रैंक)
05. एयर कोमोडेर
04. एयर वाइस मार्शल
03.एयर मार्शल
02. एयर चीफ मार्शल
01. मार्शल ऑफ द एयर फोर्स
इस तरह सचिन मानद रैंक मिलने के बाद वायूसेना के अफसरों की रैंकिंग में छठे पायदान पर हो गए। तेंदुलकर ने अपने दो दशक से अधिक समय के करियर में कई रिकार्ड बनाए हैं। वह सर्वाधिक 169 टेस्ट मैच खेलने वाले क्रिकेटर है। इसके अलावा उन्होंने 442 वन डे मैच खेले हैं और श्रीलंका के सनथ जयसूर्या के 444 मैच के विश्व रिकार्ड के काफी करीब हैं। तेंदुलकर ने अब तक टेस्ट मैचों में 56.08 की औसत से 13,742 रन बनाए हैं जिसमें 48 शतक और 55 अर्धशतक दर्ज हैं। उन्होंने वनडे मैचों में 46 शतक, 93 अर्द्धशतक सहित 17,598 रन,45.12 के औसत से बनाए हैं। वह वनडे मैचों में दोहरा शतक जमाने वाले दुनिया के पहले एकमात्र बल्लेबाज हैं।

सोनिया गांधी ने रचा इतिहास

कांग्रेस के 125 वर्षों के इतिहास में सोनिया गांधी ने नया इतिहास रचा है। उन्होंने चौथी बार औपचारिक रूप से अध्यक्ष पद की कमान संभाली है। रायबरेली से सांसद चुनी जाती रही सोनिया ने आधिकारिक रूप से 1998 में पहली बार अध्यक्ष की कुर्सी संभाली थी। वह नेहरू गांधी परिवार की पांचवीं और विदेशी मूल की आठवीं शख्सियत हैं जिन्होंने अध्यक्ष पद संभाला है। चौथी बार अध्यक्ष पद संभालने के बाद सोनिया गांधी ने सबका शुक्रिया अदा करते हुए कहा की देशभर के कांग्रेसजनों ने सर्वसम्मति से एक बार फिर निर्विरोध अध्यक्ष चुना है, इसके लिए मैं उनकी आभारी हूं। कांग्रेस पद देश के प्रति जिम्मेदारी भरा पद है जो देश और समाज के हर वर्ग को अपने साथ जोड़ने का काम करती है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने का मौका मिला है, जिसपर हम खड़ा उतड़ने का प्रयास करेगें।

सोनिया गांधी का लगातार चौथी बार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनना कोई बड़ी राजनीतिक घटना नहीं है। फिर भी इसका अपना महत्व है। कांग्रेस देश का सबसे पुराना और सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। एक समय था, जब देश में सोनिया विरोध की हवा थी। कांग्रेस-विरोध का भी समय इस देश ने देखा है। दोनों ने विरोधों व विवादों को झेला और चुनौतियों का सामना करते हुए आज देश के सामने दोनों - कांग्रेस और सोनिया गांधी लगभग निर्विवाद रूप से अव्वल दर्जे की पार्टी और लोकप्रिय नेता के रूप में खड़े हैं।

कांग्रेस विरोधी भाजपा ने तो एक लोकसभा चुनाव सिर्फ सोनिया के विदेशी मूल को मुद्दा बनाकर लड़ा था। शरद पवार उसी के चलते कांग्रेस से अलग हो गए थे और अपना नया दल बना लिया था। बाद के चुनावों में भाजपा और पवार की नई पार्टी दोनों के ही हालात बिगड़ते गए और सोनिया गांधी का कद बढ़ता चला गया। वे विदेशी मूल की हैं, उन्हें हिंदी बोलना-लिखना नहीं आता, वे राजनीति नहीं समझतीं, नेहरू-गांधी परिवार की हैं, कांग्रेस में सिर्फ चमचागिरी चलती है.. इन सब बातों को पूरी तरह दरकिनार कर सोनिया आज पुन: कांग्रेस की सर्वमान्य नेता के रूप में देश के सामने खड़ी हैं।

सोनिया के ही अध्यक्ष काल में कई वर्षो बाद पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने न सिर्फ सर्वाधिक सीटें जीतीं वरन् दूसरी बार पुन: केंद्र में सरकार भी बनाई। कांग्रेस और श्रीमती गांधी की सबसे तीखी आलोचक भाजपा कहीं की नहीं रही। गैर-कांग्रेसवाद के कट्टर समर्थक भी आज दबी आवाज में यह कहते हैं कि सोनिया गांधी ने कांग्रेस को संजीवनी दी है और आज तो वे कांग्रेस की पर्याय हैं।

भारतीय राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार का अहम स्थान रहा है। उसी खानदान की सोनिया गांधी पहली सदस्य हैं जो चौथी बार पार्टी अध्यक्ष बनी हैं। आज नजर घुमाएं तो श्रीमती गांधी जितना बड़े कद वाला राजनेता दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ता। दूसरी राष्ट्रीय पार्टियों के अध्यक्ष चाहे वे नितिन गडकरी हों या मुलायम सिंह, शरद पवार हों या मायावती, जयललिता हों या ममता बनर्जी, सोनिया गांधी का मुकाबला नहीं कर सकते। नई पारी में सोनिया के लिए कई चुनौतियां रहेंगी। पहली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को प्रभावी प्रधानमंत्री बनने देने की जबकि दूसरी देश में बढ़ती महंगाई पर काबू करने की। जनता समस्याओं से निजात पाने के लिए उन्हीं की ओर देखती है।
सोनिया का सफर
भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सबसे ऊंचे पद पर बैठी सोनिया गांधी का अर्से तक राजनीति से कोई वास्‍ता नहीं रहा। वक्त ने ऐसी करवट बदली की उन्हें राजनीति में आना ही पड़ा। 9 दिसंबर 1946 को जन्मी सोनिया ने कांग्रेस की सामान्य सदस्यता कोलकाता में पार्टी के अधिवेशन में 1997 में ली थी और उसके 62 दिन बाद ही 1998 में उन्‍हें पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुन लिया गया था। सोनिया गांधी ने 1999 में वह कर्नाटक के बेल्लारी और उत्तरप्रदेश के रायबरेली से लोकसभा चुनाव लड़ा और भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज को हराया। 2004 और 2009 में सोनिया राय बरेली से सांसद चुनी गईं। अभी सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद हैं।
2004 में जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में आम चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई और सोनिया गांधी को देश का अगला प्रधानमंत्री देखा जाने लगा तो विपक्ष ने इसका कड़ा विरोध किया। सुषमा स्वराज ने तो यह भी कह दिया था कि अगर सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनी तो वो अपना सिर मुंडवा लेंगी और जमीन पर सोएंगी। पर सुषमा स्वराज की ये ख़्वाहिश पूरी न हो सकी, उनके बाल भी बच गये और उनकी प्रतिष्ठा भी, क्योंकि सोनिया गांधी ने स्वयं हीं प्रधानमन्त्री बनना नामंजूर कर दिया
लेकिन सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए जब अर्थशास्त्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम लिया तो पूरा देश हैरान रह गया। ये पहली बार नहीं हुआ था जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद छोड़ा हो। सोनिया गांधी ने अपने पति श्री राजीव गांधी की मौत के बाद भी कांग्रेस नेताओं द्वारा दिए गए प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उस समय श्री पी.वी.नरसिंहा राव को देश का प्रधानमंत्री चुना गया था।
सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सामने सशक्त विपक्ष होने की कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। 1999 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान अक्सर मजाक में यह कहा जाता था कि अटल जी भाग्य के धनी है जो उन्हें सोनिया गांधी जैसा नेता विपक्ष मिला है. लेकिन वे उस वक्त यह अंदाज नहीं लगा पाये कि सोनिया गांधी अटल जी की पार्टी को सदा सदा के लिए विपक्ष बना देने की दिशा में काम कर रही हैं. इसमें कोई शक नहीं कि अटल जी को विपक्ष विहीन सदन मिला था फिर भी अटल जी ने कभी सोनिया गांधी को कमतर राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं देखा। शायद यही कारण है कि कांग्रेस आज भी अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर सौम्य रुख रखती है। अटल शासन के पांच सालों में सोनिया गांधी ने पार्टी को जमीन पर मजबूत करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया. सदन में सरकार से हाथापाई करने की बजाय चुपचाप वे लोगों के बीच जाती रहीं और पार्टी के काम को आगे बढ़ाती रहीं। दूसरी ओर यही वह दौर था जब उनके दो सबसे अधिक विश्वस्त सहयोगी माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट अकाल मृत्यु के शिकार हो गये लेकिन सोनिया गांधी ने पार्टी को आंच नहीं आने दिया। परिणाम 2004 में सामने आया जब कांग्रेस ने यूपीए के तहत सत्ता हासिल कर ली। भाजपा लाख कोशिश करके भी भारत उदय नहीं कर पायी लेकिन सोनिया गांधी ने छह साल के अंदर देश में कांग्रेस उदय कर दिया.
2004 में सोनिया गांधी की परम इच्छा खुद प्रधानमंत्री बनने की थी. इसके लिए उन्होंने कोशिश भी किया लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि अगर वे चाहेंगी तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता लेकिन पार्टी का अस्तित्व शायद हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा. सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा इतना मुखर था कि कांग्रेस सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाती। सोनिया गांधी ने यह भांप लिया और अपना इच्छा को कभी जाहिर नहीं किया, बजाय सत्ता के शीर्ष पर बैठने के उन्होंने सत्ता की चाभी अपने पास रख ली। उन्होंने देश में पहली बार एक ठप्पा प्रधानमंत्री नियुक्त करवाया जिसके अपने जीवन में इससे बड़ी पदवी कुछ हो नहीं सकती थी। उस वक्त अगर मनमोहन सिंह की बजाय प्रणव मुखर्जी या फिर किसी और का नाम सोनिया गांधी सामने रखती तो जल्द ही उस नेता की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से लड़ना पड़ता। मनमोहन सिंह के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। पिछले कांग्रेस शासन में प्रधानमंत्री भले ही मनमोहन सिंह रहे हों लेकिन सारी राजनीतिक शक्तियां सोनिया गांधी के पास ही निहित थीं। देश के सभी मंत्रालयों पर आदेश भले ही प्रधानमंत्री कार्यालय का चलता हो लेकिन आदेश की वह प्रति तैयार होती थी यूपीए चेयरपर्सन के दफ्तर या घर से। पूरे पांच साल देश में जहां सबसे पहले प्रधानमंत्री को पहुंचना चाहिए वहां सोनिया गांधी को पहुंचाया गया और कांग्रेस ने यह साबित किया कि दरबार के बाहर किसी का कोई अस्तित्व नहीं,खुद प्रधानमंत्री का भी नहीं।
सोनिया गांधी का कमाल यह है कि वे हर योजना की सूत्रधार होती हैं लेकिन योजनाकार के रूप में उनका कहीं नाम नहीं होता है। वे राजनीति में गुप्तचर विद्या का भरपूर प्रयोग करती हैं लेकिन कोई उनके व्यक्तित्व को संदिग्ध नहीं कह सकता। वे जीत के बाद जश्न मनाने की बजाय बड़ी जीत की तैयारी में जुट जाती हैं। सोनिया गांधी और उनका दरबार अगले बीस साल के लिए देश में कांग्रेस को स्थापित करने की दिशा में काम कर रहे हैं। फिलहाल कलह से कमजोर होती भाजपा के कारण वे लोग इसमें सफल होते भी दिखाई दे रहे हैं।
2009 के चुनाव में सोनिया गांधी एक अनिश्चय के साथ उतरी थीं,और कांग्रेस को जीत दिलाने में कामयाब रही । जाहिर था इतनी बड़ी जीत की उम्मीद उन्हें भी नहीं थी क्योंकि परिणाम आने से एक दिन पहले कांग्रेस के रणनीतिकार अमर सिंह से भी हाथ मिलाने की बात करने लगे थे। लेकिन परिणाम आया तो सब कुछ उलट गया. कांग्रेस पहले से मजबूत होकर उभरी थी और सोनिया गांधी राहुल को भी स्थापित करने में सफल हो गयी थीं। राजनीति के कुल जमा 12 वर्षों में वे राजमाता के परम पद पर आसीन हैं और निकट भविष्य में उस पद को कोई खतरा भी नजर नहीं आता है. लेकिन इस बार सोनिया गांधी ने न तो यूपीए चेयरपर्सन के नाते अपने आपको स्थापित करने की कोशिश की और न ही मनमोहन सिंह के आगे आगे चलती दिखाई दे रही हैं। सोनिया गांधी एक बार फिर नयी योजना पर काम करती दिखाई दे रही हैं।
ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी अगले बीस सालों के लिए कांग्रेस को सत्ता में स्थापित करने की दिशा में काम कर रही हैं. निश्चित रूप से इसके लिए वे हर तरह के प्रयास कर रही हैं। यह सोनिया गांधी की ही राजनीति है जो बताती है कि सफल होने के बाद शांत होकर मत बैठो, जश्न मत मनाओ. उससे बड़ी सफलता के लिए तैयारी करो. केन्द्र में सत्ता वापस आने के बाद अब कांग्रेस बीस साला परियोजना पर काम करती दिखाई दे रही है। खस्ताहाल होती भाजपा उसके इस परियोजना के सफल होने की पूरी गारंटी भी दे रही है। इसलिए 2009 के चुनाव के बाद सोनिया गांधी सत्ता प्रतिष्ठान को नियंत्रित करने की बजाय लोक अधिष्ठान को मजबूत करने में लगी हैं। यह काम वे अपने लिए नहीं कर रही हैं, इसका सीधा फायदा कांग्रेस और उनके बेटे राहुल को होगा। सोनिया गांधी ऐसी ही योग्य राजनीतिज्ञ हैं जो सत्ता संघर्ष में अपने हर हथियार का इस्तेमाल करती है. वे एक से एक लाजवाब योजनाएं बनाती हैं, उसे लागू करवाती हैं लेकिन जब जनता के सामने आती हैं तो भूले से भी यह अहसास नहीं होता कि यह महिला ऐसी गजब की योजनाकार भी हो सकती है। जनता के सामने वे एक आदर्श गृहणी और सीधी सरल सुसंस्कृत नारी ही नजर आती है। यही सोनिया गांधी का कमाल है और यही उनकी विलक्षण योग्यता जिसके बदौलत एकबार फिर कांग्रेस की कमान संभालती नजर आएंगी। जो कठिनाई और चुनौतियों से भरा होगा।

Saturday, August 21, 2010

नक्सलवादः बेबस सरकार, समस्याओं से घिरी आन्तरिक सुरक्षा

देश की एकता अखण्डता के लिए ही नहीं बल्कि पूरी आंतरिक सुरक्षा के लिए आज नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। माओवादी दंतेवाड़ा से लेकर झारग्राम तक लगातार हिंसा और हत्या कर रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार ये फैसला नही कर पा रही है कि माओवादियों के साथ करारे ढंग से प्रतिकार करें या उनके साथ नरमी बरती जाए। इसमें दो मत नही कि जिन वजहों से नक्सलवाद उपजा है वो जायज है, लेकिन माओवादी उसके समाधान के लिए जिस हिंसक तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं उनको जायज नही ठहराया जा सकता है। देखा जाए तो भिन्न-भिन्न नामों से चलने वाले माओवादी संस्था चाहे वो भूमिगत हों या खुले समाज में सरकार को पूरी तरह प्रतिबंध लगा देनी चाहिए।
मनमोहन सिंह जब से देश के प्रधानमंत्री बनें है तब से वे इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों में सर्वोपरी रहे हैं। देश आंतकवाद के साथ नक्सलवाद की भट्टीयों में जल रहा है, लोग मर रहे हैं, सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं, पर राजनीतिक पाटीयां एक-दूसरे पर बयानबाजी करते नजर आ रहे हैं। हालिया छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों ने अप्रैल 2010 में सीआरपीएफ के 75 जवानों को जिस तरह घेर कर मारा, यह सरकार को बताने के लिए काफी है। केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चलने वाली ऑपरेशन ग्रीन हंट की भी पोल खुल गई है। इससे साफ हो गया है कि नक्सली जंगल में घात लगाकर हमले करने में माहिर हो चुके हैं। लगातार नक्सली हमलों ने सरकार की आतंरिक सुरक्षा में सेंध लगाना शुरू कर दिया है, जो सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। दंतेवाड़ा की घटना के बाद केंद्र और राज्य सरकार को यह आभास हो जाना चाहिए की नक्सली सामान्य शत्रु नही है।
दलित वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी से जो हिंसक आंदोलन प्रारंम्भ हुआ था, वह आज हिंसा, फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार को रोकने के लिए सरकार पहले इसे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्या के रूप में देखती थी। इतना ही नहीं ये मानकर चलती थी कि जिन इलाकों में पिछड़ापन है और समाज का जो हिस्सा बेहद पिछड़ा है, उसके बीच में इनका प्रभाव होता है। तब सरकार इनके लिए कई तरह के विकास के कार्यक्रम चलाने की योजना बनाती थी, लेकिन देश के कई हिस्सों में ये देखा जा चुका है कि तमाम तरह की योजनाओं को लागू करने का दावा करने के बाद भी नक्सलवाद के प्रभाव को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है।
नक्लवाद को बढ़ावा देने में सरकार जिम्मेदार

नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टियों के नाम जरूर बदलते रहे हैं, तब सरकार भूमि सुघार कानून को लागू करने पर भी जोर देती थी, लेकिन जब से अमेरिकी परस्त भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू किया गया है तब से भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने की औपचारिकता तक खत्म कर दी गई है।
पिछले चुनाव के दौरान तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भूमि रखने की अधिकतम सीमा बढ़ाने का भी वादा किया था। स्थितियां इस कदर हो गई है कि 76 प्रतिशत लोग रोजाना बीस रूपये से कम पर गुजारा कर रहे हैं। जिन इलाकों में सरकार नई नीतियों के तहत नये-नये उद्योग विकसित करना चाहती है वहां तो भूखमरी की खबरें आई हैं।
इस तरह ये साफ तौर पर देखा जा सकता है कि सरकार नक्सलवाद को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश करने में लगी है। केन्द्र में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार थी तब ये कोशिश शुरू की गई थी कि सरकारी दस्तावेजों से नक्सलवाद को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्या भले माना जाए लेकिन व्यवहार में इसे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश किया जाए। दरअसल अब तक सोचने का तरीका ये रहा है कि सत्ता में जो पार्टी जा रही है, वह अपने कार्यक्रमों को लागू करने पर जोर देगी. लेकिन स्थितियां अब बदल चुकी है. पार्टियां सत्ता चलाने जरूर जाती हैं लेकिन सत्ता उन्हें चलाती है. किसी भी पार्टी में अब इतनी ताकत नहीं बची है कि वह अपनी उन घोषित नीतियों को लागू कर सके जो सत्ता की नीतियों के विपरीत हो। सत्ता पर जिस वर्ग का वर्चस्व है, वह सत्ता को अपने तरीके से चलाता है. पार्टियां उसका अनुसरण करती हैं।

नक्सलवादः तथ्य

1. 1970 और 1980 के दशक में नक्सलवाद का प्रभाव पहले केवल बंगाल में लेकिन अब पूर्व के साथ दक्षिण राज्यों में भी खासा असर है।
2. फिलहाल देश के 15 राज्यों के 170 जिलों में सक्रिय।
3.देश के कुल क्षेत्रफल के 40 प्रतिशत हिस्से में फैला है.
4. 92,000 वर्ग किमी के विशेष त्रेत्र में सक्रियता ज्यादा
5. गश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्धप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश राज्य नक्सलियों से ज्यादा प्रभावित
6. रॉ के मुताबिक, नक्सलियों के टीम में 20,000 सशस्त्र कैडर औऱ50,000 नियमित कैडर हैं।
7. 2005 से 2008 के आकड़ों में नक्सली हमलों में 2772 लोग मारे गए। इसमें 1994 नागरिक और 777 सुरक्षा कार्मिक शामिल थे।
8. चार सालों में सीर्फ 839 नक्सली मारे गए।
9. केंद राज्यों को नक्सलियों से निपटने के लिए अर्द्धसैनिक बल देता है। लेकिन उसका हौसला भी पस्त है। जो अब छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के थानों का सुरक्षा में लग गए हैं।
10. नक्सली से निपटने के लिए 51,000 हजार जवान नक्सली क्षेत्रों में तैनात है। जिसमें सीआरपीएफ के हजारों जवान लगे हैं।
11 9 नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस के दो लाख पद खाली है।
12. वर्ष 2009 में 1597 घटनाएं नक्सली हिंसा दर्ज हुई है। इसमें 490 नागरिक मारे गए और 307 सुरक्षाकर्मी शहीद।
इन आंकड़ों में (केवल दंतेवाड़ा तक) 625 घचनाएं हुई, 200 नागरिक, 161 सुरक्षाकर्मी मकरे गए।

नक्सलवाद उदय के कारण

नक्सलवाद उदय के मुख्य कारण, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक शोषण से जुड़ा हुआ है। नक्सलियों का मानना है कि वर्तमान राजसत्ता नौकरशाहों, भष्ट राजनीतिज्ञों, पूंजीपतियों, भूस्वामियों और दलालों के हाथ में है। ये सभी मिलकर विशाल समूह वाले कृषक मजदूर एवं अन्य दलितों पर राज्य कर रहे हैं। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ नक्सली आंदोलन 1970 के मध्य और 1971 के बीच नक्सली हिसा के दृष्टि से अपने चरम पर था। इस अवधि में लगभग 4000 वारदातें हुई। लोग बेबस और लाचार थे जो नक्सली दमनचक्र के शिकार हो रहे थे। धारे-धीरे ये नक्सली देश के 170 जिलों में फैल गया है। देखा जाए तो नक्सलवाद अब तक का देश का अकेला सबसे बड़ा आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बन गया है। सच तो यह है कि खुद को नक्सलवाड़ी की पैदाइश बताने वाले छोटे और बड़े संगठन छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट में सक्रिय है।

नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि-
नक्सली समस्या से निपटने की हमारी रणनीति के दो स्तंम्भ होंगे- पहला प्रभावी पुलिस प्रति प्रक्रिया सुनिश्चित करना और दूसरा अलगाव के बोध को कम करना। प्रधानमंत्री के अनुसार पुलिस अनुक्रिया आवश्यक है क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्था कायम रखने के राष्ट्रीय दायित्व के लिए जरूरी है लेकिन प्रभावी पुलिस अनुक्रिया का अभिप्राय भारतीय शासन व्यवस्था को क्रूर बनाना नही है। अतः सर्वविदित है कि चार दशक से इस गंभीर समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने का सार्थक प्रयास अभी तक नही किया गया है जिससे आंतरिक सुरक्षा संबंधी चुनौती उत्पन्न हुई है।

ममता का नक्सली प्रेम

1967 में नक्सलीयों का जन्म माकपा के भ्रूण से हुआ, किंतु इस असहज सच्चाई ने ज्योति बसु, प्रमोद दास गुप्ता और हरे कृष्ण कोनार को अपनी संतति को क्रांति के औजार में इस्तेमाल करने से नही रोका। जब इंदिरा गांधी की सरकार बनी तो माओवादियों के खात्मे का काम शुरू हो गया। इतना ही नही 1971 से 1977 तक माकपा को निष्क्रय कर दिया गया। ममता बनर्जी कांग्रेस में तब सक्रिय हुई, जब नक्सली बिखर गए थे और माकपा शांति निंद्रा में चली गई थी। ममता अपनी सियासत को मजबूत करने के लिए समय-समय पर सड़कों पर संघर्ष और प्रदर्शन करना शुरू कर दी। धीरे-धीरे वह माकपा का प्रतिरोध करने वाली सबसे प्रबल शक्ति बन गई। पिछले सप्ताह लालगढ़ में ममता बनर्जी द्वारा आयोजित गैर राजनीति रैली में पश्चिमी मिदनापुर के माओवादियों की सक्रियता पर संसद में काफी बवाल मचा। प्रतिमंधित भाकपा(माओवादी) के प्रति उनके हमदर्दी भरे बयान और माओवादी नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत के संबंध में उनकी गलत बयान के कारण राज्यसभा समेत लोकसभा में जमकर हंगामा हुआ, जिसके कारण सप्रंग सरकार को काफी फजीहत झेलनी पड़ी।
इसे आप क्या कहेंगे यह तो ममता की सोची साझी साजिश थी जिसका फायदा उन्हें मिला। ममता ने माओवादी का समर्थन कर पश्चिम बंगाल में अपनी पैठ को और मजबूत कर ली है। लेकिन ममता जिस नेवला को दूध पिला रही है, वह एक दिन उनके लिए ही घातक हो जाएगा। सच तो यह हे कि पश्चिम बंगाल में हो रहे माकपा और ममता की लड़ाई में जीत तो माओवादी की है जिसका खमियाजा आम लोगों को उठाना पर रहा है।

अरूंधती राय का बयान-
नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय ने उस समय सब की आंखें खोल दी जब वो नक्सलियों का समर्थन करते नजर आए। अरूंधती राय का यह बयान देश तोड़ने वाला नक्सली को संजिवनी से कम नही था जहां नक्सली 2050 तक भारत पर कब्जा करना चाहते हैं। उनका बयान नक्सली को जायज ना ठहराकर अपनी ही सरकार की फजीहत करवाती है। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। सच तो यह है कि हर तरफ से आम जनता ही हिंसा के शिकार हो रहे हैं और राजनीतिक पार्टीयां अपनी-अपनी रोटी सेकने में लगे हैं।

आखिरकार देखा जाए तो नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों के हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य बहादुरी के प्रमाण अभी तक नही लिखे गए हैं। आखिर सवाल यह है कि हम नक्सलवाद के साथ खड़े हैं या खिलाफ में, अगर खिलाफ में खड़े हैं तो इतनी विनीत क्यों हैं। सभी जानते हैं कि माओवाद का विचार संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, ऐसे में उनके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। जो लोग नक्सलवाद को समाजिक, आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वे सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि कि अगर सरकार नक्सलवाद पर लगाम लगाना चाहती है तो उसे किसने रोक रखा है। क्या इस सवाल का जबाव किसी भारतीय राज्य के पास है। क्योंकि यह सवाल उस निर्दोष भारतीयों के परिजनों का है, जिसने लाल आतंक की भेंट में अपनों को खोया है।

Monday, August 2, 2010

कॉमनवेल्थ गेम को लेकर कितनी तैयार है दिल्ली

कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में अब दो महीने से कुछ ज़्यादा का वक्त ही रह गया है। हम जैसे-तैसे तैयारियों को अंतिम रूप देने में लगे हुए हैं। लेकिन ऐसे कई सवाल हैं जिसका जबाव देना मुश्किल है। क्या हम इन खेलों का सफल आयोजन कर पाएंगे ? क्या इन खेलों से देश में खेल और खिलाड़ीयों का कोई भला हो सकेगा, सोचना लाजमी है । भारत ने इन खेलों की मेजबानी के वक्त लगाई गई बोली में यह कहा था कि अगर ये खेल भारत में होते हैं तो देश में युवाओं को खेलों की तरफ प्रेरित करने में मदद मिलेगी।
अब सवाल यह उठता है कि हजारों करोड़ रुपये खर्चकर हमने तामझाम तो तैयार कर लिया है, लेकिन क्या कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन से सिर्फ दिल्ली चमकेगी और आयोजन से जुड़ी कंपनियों, ठेकेदारों को फायदा पहुंचाकर यह निपट जाएगी। या फिर, वाकई 14 अक्टूबर को हम पदक तालिका में कहीं ‘नज़र’ आएंगे। इन सवालों में ही कॉमनवेल्थ खेलों की कामयाबी और नाकामी के जवाब छुपे हुए हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स भारत में पहली बार और एशिया में दूसरी बार (1998 में मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर में ये खेल हो चुके हैं) हो रहे हैं। 1951 और 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के बाद हम पहली बार इतने बड़े पैमाने पर मल्टी स्पोर्ट्स टूर्नामेंट को आयोजित करने जा रहे हैं। 3 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक देश की राजधानी नई दिल्ली में होने जा रहे इन खेलों की तैयारी पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
कॉमनवेल्थ गेम्स की एक झलक
कॉमनवेल्‍थ खेल करीब 80 साल पुराना आयोजन है। इसमें उन देशों के खिलाड़ी भाग लेते हैं, जो कभी न कभी ब्रिटिश राज के नियंत्रण में रहे हैं। फिलहाल 71 विभिन्न देशों की टीमें इसमें भाग ले रही हैं। यह पूरा आयोजन कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन (सीजीएफ) की निगरानी में होता है।
कॉमनवेल्‍थ खेलों का आयोजन पहली बार 1930 में हुआ था। केवल 6 देशों (आस्ट्रेलिया, कनाडा, यूके, न्यूजीलैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स) की टीमें हैं, जिन्होंने अब तक के सभी कॉमनवेल्थ खेलों में हिस्सा लिया है।




1930 में हुए खेलों का नाम ब्रिटिश एंपायर गेम्स था। ये खेल कनाडा के हैमिल्टन में आयोजित किए गए थे। 1954 में इसका नाम बदल कर ब्रिटिश एंपायर एंड कॉमनवेल्थ गेम्स रखा गया और 1978 से ये खेल कॉमनवेल्थ खेलों के नाम से विख्यात हो गया।खेलों की शुरुआत और समाप्ति के अवसर पर होने वाली परेड में सभी देश अंग्रेजी अल्‍फाबेट के आधार पर स्थान लेते हैं। लेकिन पहले नंबर पर पिछले साल के खेलों का आयोजक देश होता है और अंतिम नंबर पर खेलों का आयोजन करने वाला वर्तमान देश होता है। पुरस्कार दिए जाने वाले मंच पर तीन झंडे लहराते हैं। ये झंडे पिछले खेलों के मेजबान देश, मौजूदा मेजबान और और अगले आयोजक देश के झंडे होते हैं। आम तौर पर ब्रिटेन की रानी कॉमनवेल्थ खेलों के शुरुआती सत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं, लेकिन इस बार दिल्ली में होने जा रहे खेलों में वे शामिल नहीं हो पाएगी। यह 40 साल में पहली बार होगा है कि ब्रिटेन की रानी क्वीन एलिजाबेथ दिल्ली में होने वाली कॉमनवेल्थ खेलों में शरीक नहीं हो पाएगी।
वादा तो किया, निभाना मुश्किल
2003 में कनाडा को पछाड़कर हमने कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का अधिकार हासिल किया था। भारत ने बिडिंग जीतकर नया मोर्चा हासिल करने में कामयाब हो गया और 71 देशों के कॉमनवेल्थ परिवार की दोस्ती में शामिल हो गया। भारत ने उस समय वादा किया कि 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स का शानदार आयोजन होगा और तैयारियां वक्त पर पूरी होंगी।
1500 दिनों में कुछ नही, 60 दिनों से जगाई उम्मीद
2005 में जब हम इन खेलों से करीब पांच साल दूर थे, तब कॉमनवेल्थ खेल आयोजन समिति ने ‘1500 दिन दूर” नाम का कैंपेन बड़े तामझाम के साथ शुरू किया था। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हरी झंडी दिखाई थी। लेकिन करीब 1440 दिन बीत जाने के बाद भी हमारी तैयारियां न सिर्फ अधूरी हैं बल्कि हमने जो काम भी किया है उनकी क्वॉलिटी पर सवाल उठ रहे हैं, तो कहीं स्टेडियम तैयार नहीं हैं, और जो तैयार हो गए हैं उनकी हालत बद से बदतर दिख रही है।




महंगाई में महंगा कॉमनवेल्थ
भारत में हो रहे 19 वें कॉमनवेल्थ खेल के इतिहास में अब तक का सबसे महंगा आयोजन है। इस खेल का मूल बजट करीब 7700 करोड़ रुपये हैं। इसमें एयरपोर्ट, सड़क और अन्य बुनियादों ढांचों के विकास का बजट शामिल नहीं किया गया है। 71 देशों के करीब 8000 एथलीटों व करीब एक लाख बाहरी दर्शकों का स्वागत, सुरक्षा व सुविधा के लिए दिल्ली में कुछ भी कायदे से तैयार नहीं है। आखिर बढ़ती महंगाई में कॉमनवेल्थ गेम के नाम से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है।
तारीख पर तारीख के बावजूद अधर में तैयारी
शीला दीक्षित ने फिर कहा कि जिन भी स्टेडियमों में खेल होने हैं, उनको जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण-मरम्मत का काम 30 अगस्त तक हो जाएगा। जबकि यह तारीख पिछले वर्ष के 30 अगस्त की होनी चाहिए थी। पिछले दो वर्षों में हर दूसरे महीने पर तारीख पर तारीख पड़ती जा रही है लेकिन काम पूरे नहीं हो पा रहे हैं। गौरतलब है कि 16 सितंबर से ही टीमें भारत पहुंचने लगेंगी।
खेलों के लिए निर्धारित स्थान
19 वें कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में होने हैं। दिल्ली के करीब 12 स्टेडियम इसके लिए तैयार किए जा रहे हैं। इनमें जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम, ध्यानचंद नेशनल हॉकी स्टेडियम, इंदिरा गांधी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, दिल्ली यूनिवर्सिटी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, त्यागराज स्टेडियम, सिरी फोर्ट स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, डॉ. कर्णी सिंह शूटिंग रेंज, तालकटोरा इंडोर स्टेडियम, आरके खन्ना टेनिस कॉम्प्लेक्स, यमुना स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स और इंडिया गेट शामिल है। जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम कॉमनवेल्थ गेम्स का मुख्य स्टेडियम होगा। यहां पर उद्घाटन समारोह, समापन समारोह आयोजित किए जाएंगे।
कॉमनवेल्थ गेम्स की अधूरी तैयारी
कॉमनवेल्थ गेम्स, 2010 का मुख्य स्टेडियम जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम है। इन खेलों के ट्रैक ऐंड फील्ड इवेंट इसी स्टेडियम में होंगे। यहां करीब 75 हजार दर्शकों के बैठने की क्षमता है। इस स्टेडियम में मुख्य रूप से एथलेक्टिस, लॉन बॉल, वेटलिफ्टिंग जैसी स्पर्धाएं आयोजित की जाएंगी। इस स्टेडियम की मरम्मत हुई है और इसे नए सिरे से सजाया-संवारा गया है। नए सिरे से बने स्टेडियम का उद्घाटन 27 जुलाई को कर दिया गया।


लेकिन यह उद्घाटन तय समय से छह महीने बाद हुआ है। मूल योजना के मुताबिक इस स्टेडियम को जनवरी, 2010 में ही तैयार हो जाना था। यहां अब भी काम जारी है, जिसका सीधा मतलब है कि उद्घाटन करना भी महज रस्म अदायगी है क्योंकि अभी स्टेडियम में कई चीजों पर काम चल रहा है। स्टेडियम में निर्माण का काम 2008 में ही शुरू हो पाया था।
कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजन समिति के दावों की पोल तालकटोरा स्टेडियम में ही खुल गई। यहां स्विमिंग और बॉक्सिंग जैसी प्रतिस्पर्धाएं आयोजित की जाएंगी। इसका उद्घाटन 18 जुलाई को किया गया था, लेकिन यह स्टेडियम बिल्कुल तैयार नहीं है। इस स्टेडियम की तब पोल खुल गई जब एक महिला तैराक को तैराकी का अभ्यास करते हुए चोट लग गई। इस स्टेडियम के पुनर्निर्माण में करीब 377 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। इस स्टेडियम में खिलाड़ियों के लिए बना ड्रेसिंग रूम अधूरा पड़ा हुआ है। यहां कई जगह तार टूटे पड़े हैं। स्टेडियम में जहां-तहां बिल्डिंग मैटिरियल बिखरा पड़ा है। और तो और स्टेडियम की सीढ़ियां भी अधूरी हैं। उन पर रेलिंग वगैरह नहीं लगी है। यहां टाइल्स उखड़ी पड़ी हुईं हैं। इसके अलावा कई जगह पर लोहे के रॉड निकले हुए हैं, जिनसे खिलाड़ियों को कभी भी चोट लग सकती है। स्टेडियम में अभी कई जगह छतों का काम जारी है। इस स्टेडियम को अक्टूबर, 2009 में ही तैयार हो जाना था। लेकिन अब तक सभी चीजें अधर में लटकी हुई है।
शहर भी नहीं है तैयार
बीएमसी के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा नगर निगम एमसीडी सीधे तौर पर राष्ट्रकुल खेल के प्रोजेक्ट से जुड़ा नहीं है। लेकिन उसके जिम्मे सड़कों के निर्माण से लेकर दशा-दिशा सुधारने, फुटपाथ, सेंट्रल वर्ज, लैंडस्कैपिंग, पार्किग व्यवस्था समेत साफ-सफाई से जुड़े काम है। 30 जून तक काम पूरा होना था और खेलों को 67 दिन बचे होने के बाद भी करीब चौथाई काम अधूरे हैं। सभी प्रोजेक्टो में से सिर्फ जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के पास कुशक व सुनहरी नाले पर 700 बसों के लिए पार्किग व्यवस्था करने का काम एमसीडी ने तकरीबन पूरा कर लिया है।




सालों पहले जैसे ही राजधानी में राष्ट्रकुल आयोजित होने की घोषणा हुई तो कनाट प्लेस को सजाने संवारने के लिए प्लान तैयार करने की कवायद शुरू हो गई। तमाम जद्दोजहद के बाद मार्च 2007 में सीपी को खूबसूरत बनाने का काम एनडीएमसी ने शुरू कर दिया। इसे अगस्त, 2010 तक पूरा करने का दावा है। मगर अभी आउटर सर्किल के कई ब्लाकों में करीब एक चौथाई काम अधूरा परा है।
एनडीएमसी का दावा है कि खेलों से पूर्व देश का पहला भूमिगत पालिका बाजार भी बिल्कुल अलग लुक में नजर आएगा। बाजार में जाने के लिए सात गेटों में से कुछ पर एस्कलेटर के अलावा लिफ्ट भी लगाई जा रही है। इसके अलावा इसके पूरे फर्श को उखाड़कर ग्रेनाइट के पत्थर लगाने का काम शुरू हो चुका है। बाजार का सीवर सिस्टम बदला जाएगा। साथ ही वहां शौचालय आदि को भी नया रूप देने की तैयारी चल रही है। बाजार में लगे सभी पिलरों के ऊपर स्टील की कोटिंग होगी। पूरे बाजार के एयरकंडीशन सिस्टम को बदला जा रहा है। लेकिन इन तमाम योजनाओं में ज़्यादातर अधूरी हैं। किसी में चौथाई तो किसी में 30-40 फीसदी काम अधूरा है। सीएजी की रिपोर्ट नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्टे बताती हैं कि इन परियोजनाओं के पिछड़ने के पीछे खराब योजना, देरी से शुरुआत, पैसे की कमी व मंजूरियों में देरी जैसे कई कारण रहे हैं। बात चाहे बिजली प्लांट लगाने की हो या फिर बसों, चिकित्सा सुविधाओं या होटलों की, कहीं भी कुछ भी वक्त व योजना के मुताबिक नहीं है। सीवीसी की नज़र कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों पर न सिर्फ देरी के आरोप लग रहे हैं बल्कि यह भी आरोप हैं कि इन खेलों के बहाने जबर्दस्त भ्रष्टाचार हुआ है। सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर का एक बयान आया है जिसमें कहा गया है कि उनका विभाग कई शिकायतों के बाद कॉमनवेल्थ गेम्स के सिलसिले में हो रही निर्माण कार्य पर नज़र रखे हुए है।
कॉमनवेल्थ गेम पर हो रही है सियासत
कॉमनवेल्थ गेम को लेकर राजनीति होना लाजमी है। भाजपा ने तो दिल्ली सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। दिल्ली सरकार के लिए यह शर्मनाक बात है कि केन्द्र और दिल्ली सरकार के मंत्री रोजाना स्टेडियमों में पहुंचकर पब्लिसिटी पाने के लिए अपनी तस्वीरें खिंचवाते रहते हैं जबकि उनकी पहली प्राथमिकता स्टेडियमों का काम समय से पूरा करने की होनी चाहिए। पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शिला दीक्षित जनता के सामने वादा करती नजर आती हैं। इतना ही नही एमएस गिल तो बड़ी-बड़ी बातें करने में लगे हैं। देखना है कि बचे समय में सरकार कितना सफल होती है।

अपने ही अपनों के दुश्मन

अपने ही अपनों के दुश्मन

कश्मीर घाटी में लगातार बढ़ रहे हिंसा ने राज्य एंव केंद्र सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया है। जिससे दोनों सरकारों के बीच आपसी दुरियां बढ़ने लगी है । धरती का जन्‍नत कहा जाने वाला कश्‍मीर एक बार फिर सुलग रहा है। जिसका शिकार खासकर सोपोर और उसके आसपास के इलाके हैं। सच तो यह है की कश्मीर घाटी की समस्याएं टलती नहीं दिख रही है बल्कि और खतरनाक हो गयी है। कश्मीर राज्‍य के उत्‍तरी हिस्‍से से शुरू हुआ हिंसा का दौर अब धीरे-धीरे दक्षिणी हिस्‍सों में भी अपना असर दिखाने लगा है। हिंसा की ताजा घटना दक्षिण कश्‍मीर के पांपोर में हुई है, जो आग की तरह फैलती जा रही है। इतना ही नहीं उमर अब्‍दुल्‍ला सरकार के लिए स्थिति पर काबू पाना मुश्किल होता दिख रहा है। कश्मीर में जिस तरह का माहौल बन रहा है, उससे राज्‍य और केंद्र सरकार के बीच टकराव की संभावना बढ़ती जा रही है।
एक नजर कश्मीर के हलातों पर डाले तो पता चलता है कि अब तक करीब 30 लोग मारे गए हैं, जिनमें से ज्यादातर किशोर और नौजवान हैं। कश्मीर के हलातों पर घड़ियालु आंसू बहाने वाले कोई और नहीं बल्कि कुछ अलगाववादी तत्व और पाकिस्तान में बैठे आका हैं। जो लोगों की भावनाओं से खेलते हैं, रणनीति के तहत औरतों और किशोरों को प्रदर्शन के लिए गुमराह करते हैं, इतना ही नहीं मौत का राजनीति लाभ लेना चाहते हैं। इसे क्या कहेगें जो अपने चंद फायदों के लिए अपनों का ही खून बहाते हैं और दोष राज्य सरकार के अनुभवहीनता और कार्यकुशलता पर मढ़ते हैं। सच तो यह है कि हम सभी को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्बदुल्ला की निष्ठा और गंभीरता पर कोई शक नहीं है पर उनकी कार्यकुशलता निश्चित रूप से संदेह के घेरे में आ गई है।
गौरतलब है कि सैय्यद अली शाह गिलानी और मीरवाईज उमर फारुक ने शांति की अपीलों को अनसुना कर लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए भड़का रहे हैं। जिससे माहौल बिगड़ता जा रहा है। आम लोग अर्धसैनिक बलों के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं और इतना ही नहीं कर्फ्यू के बावजूद लोग प्रदर्शनों में भाग ले रहे हैं। सच तो यह हे कि राज्‍य के कई हिस्‍सों में एसएमएस सेवा बंद कर दी गई है जिससे लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। पर सवाल यह है कश्मीर में ऐसी नौबत क्यों आयी है, कश्‍मीर घाटी के लोग एकाएक सड़कों पर क्यों उतर रहे हैं ? इतना ही नहीं घाटी फिर क्यों सुलग रही है ? राज्‍य के अलगाववादी तत्‍व एक बार फिर जनभावनाएं भड़काकर अपने गर्हित उद्देश्‍यों को क्यों पूरा करने में जुटे हुए हैं ? दरअसल इस सारे मामले की जड़ में कश्‍मीर में अर्धसैनिक बलों की तैनाती है, जिसे लेकर राज्‍य के मुख्‍यमंत्री उमर अब्‍दुल्‍ला एवं राज्‍य के अलगाववादी संगठन लगातार विरोध करते आ रहे हैं। इतना ही नहीं इसके अलावा यह लोग सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को वापस लेने या इसमें निहित कुछ अधिकारों को कम करने की मांग कर रहे हैं। अलगाववादियों का आरोप है कि इस कानून से राज्‍य में अर्धसैनिक बलों को अपनी मनमानी करने और मानवाधिकारों का खुला उल्‍लंघन करने का मौका मिलता है। साथ ही वह सेना पर फर्जी मुठभेड़ का भी आरोप लगाते हैं। खुद मुख्‍यमंत्री उमर अब्‍दुल्‍ला इन मामलों को लेकर केंद्र सरकार से अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं।
देखा जाए तो हुर्रियत के गिलानी धड़े ने राज्‍य में आंदोलन चलाकर अपनी राजनीति रोटियां सेंकने में लगे हैं। यह अलग बात है कि हुर्रियत अपनी विभाजन के बाद उतनी प्रासंगिक नहीं रह गई है जितनी पहले थी पर कहीं ना कहीं सुलग रही कश्मीर घाटी में घी डालने का काम कर रही है। जम्‍मू कश्‍मीर के कानून मंत्री अली मोहम्मद सागर का कहना है कि राज्य सरकार चरमपंथियों और अलगाववादियों के राजनीतिक नेतृत्व के ख़िलाफ़ लड़ रही है. लेकिन हम अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ नहीं लड़ सकते जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर चुनाव में हिस्सा लिया।

देखा जाए तो इस मामले में इतनी आग इसलिए लगी है कि सीआरपीएफ के जवानों द्वारा की गई फायरिंग में कुछ युवाओं की मौत शामिल है। आजादी के बाद से लगातार संवेदनशील बने रहने वाले इस राज्‍य में अलगाववादी ऐसा कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहते है जिससे उन्‍हें भारत सरकार को कठघरे में खड़ा करने और लोगों की भावनाओं को भड़काने का मौका मिले।
केंद्र सरकार कश्मीर घाटी में बढ़ रही हिंसा को देखते हुए विशेषाधिकार को मानवीय बनाने पर विचार कर रही है। यहां तक की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आश्वासन दे चुके है। प्रधानमंत्री श्रीनगर यात्रा के दौरान सुरक्षा बलों को मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं करने का निर्देश भी दिया था। पर यह सब सीर्फ आश्वासन बन कर रह गया है।
देखा जाए तो भारतीय सेना इस कानून को हटाए जाने अथवा इसे हल्‍का करने की किसी भी मंशा का विरोध करती रही है। इतना ही नहीं सेना प्रमुख वीके सिंह का कहना हैं कि जो लोग सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार कानून को वापस लेने अथवा उसे हल्‍का करने की मांग कर रहे हैं, वह संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा कर रहे हैं, पर ऐसा करने से सेना का संचालन गंभीर रूप से प्रभावित होगा।
कश्मीर में हिंसा भड़काने में पाकिस्तानी सूत्रधार हों या अलगाववादी तत्व, पर उस पर अंकुश लगाना शासन का मुख्य काम है। पर अब जो हालात बन गए हैं उनमें अकेले उमर से संभव नही लगता। इसलिए जरूरी है कि राज्य के सभी पक्ष और केंद्र भी इस समस्या को प्राथमिकता बनाकर हिंसा रोकने और माहौल सुधारने का प्रयास करें, जिससे एक बार फिर कश्मीर घाटी में शांति बहाल हो सके।

पाकिस्तान का चेहरा हुआ बेनकाव

पाकिस्तान का चेहरा हुआ बेनकाव
अफगानिस्तान में भारतीयों के खिलाफ आतंकी हमलों में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के शामिल होने संबंधी जानकारियों को वाइकीलीक्स नामक वेबसाइट ने सावजनिक रूप से पाकिस्तान के शामिल होने की बात उजागर की है। जिससे सरकारी हलकों में मिश्रित प्रतिक्रिया शुरू हो गयी है।
पाकिस्तान के खुफिया और सरकारी हलकों में लोगों का मानना है कि यह पाकिस्तान पर दबाव बनाने और इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई) सहित उसकी अन्य खुफिया एजेंसियों को एक और विवाद में उलझाने का प्रयास है। एक वर्ग का मानना है कि यह उन घटनाओं का खुलासा है जिनकी परिणति अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में हुई। लीक हुए ज्यादातर दस्तावेजों में ज्यादा जोर अफगानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा बलों पर होने वाले हमलों के बारे में बताया है। इन दस्तावेजों में नागरिकों के हताहत होने पर चिंता जाहिर की गई है। अमेरिकी दैनिक "न्यूयार्क टाइम्स" के अनुसार लीक हुए दस्तावेजों में कहा गया है कि पाकिस्तानी सेना ने दुश्मन और दोस्त दोनों ही भूमिकाएं निभाई हैं क्योंकि उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने हमलों की साजिश रचने में अलकायदा का साथ दिया है। इस दोहरे नीति को लेकर अमेरिकी अधिकारी अर्से से पाकिस्तान पर शक करते रहे हैं। अमेरिकी अधिकारी पहले भी एक ब़डे हमले में आईएसआई की भूमिका के सबूतों का खुलासा कर चुके हैं। जुलाई 2008 में सीआईए के उपनिदेशक स्टीफन आर.कैप्स ने काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमले की साजिश में आईएसआई द्वारा मदद किए जाने संबंधी इन सबूतों के बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों से बातचीत की थी। अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संबंध हमेशा से शंकाओं के घेरे में रहा है। पाकिस्तानी अवाम की यह राय रही है कि अमेरिका उसे कमतर आंकता है। ऎसे में अमेरिका द्वारा इन सैन्य दस्तावेजों के इस प्रकार सार्वजनिक होने की जांच का आदेश दिए जाने भर से आलोचकों का मुंह बंद करना आसान नही होगा। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के अनुसार आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान ने किसी भी अन्य मुल्क से ज्यादा कुर्बानी दी है और अमेरिका इन कुर्बानियों से सिर्फ अवगत ही नहीं है, बल्कि वह इनकी सराहना भी करता है। पाकिस्तान के रवैये से अमेरिका पूरी तरह अवगत हो गया, ऐसे में अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ क्या कारवाई करता है यह देखने वाली बात होगी। पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने यहां तक कह डाला कि ऐसे आरोप अब असामान्य नहीं हैं और इनसे निपटने का सही तरीका यही है कि इन्हें मुस्कुरा कर नजरंदाज कर देना चाहिए।