Saturday, August 21, 2010

नक्सलवादः बेबस सरकार, समस्याओं से घिरी आन्तरिक सुरक्षा

देश की एकता अखण्डता के लिए ही नहीं बल्कि पूरी आंतरिक सुरक्षा के लिए आज नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। माओवादी दंतेवाड़ा से लेकर झारग्राम तक लगातार हिंसा और हत्या कर रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार ये फैसला नही कर पा रही है कि माओवादियों के साथ करारे ढंग से प्रतिकार करें या उनके साथ नरमी बरती जाए। इसमें दो मत नही कि जिन वजहों से नक्सलवाद उपजा है वो जायज है, लेकिन माओवादी उसके समाधान के लिए जिस हिंसक तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं उनको जायज नही ठहराया जा सकता है। देखा जाए तो भिन्न-भिन्न नामों से चलने वाले माओवादी संस्था चाहे वो भूमिगत हों या खुले समाज में सरकार को पूरी तरह प्रतिबंध लगा देनी चाहिए।
मनमोहन सिंह जब से देश के प्रधानमंत्री बनें है तब से वे इस बात को कई बार दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन नक्सलवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों में सर्वोपरी रहे हैं। देश आंतकवाद के साथ नक्सलवाद की भट्टीयों में जल रहा है, लोग मर रहे हैं, सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं, पर राजनीतिक पाटीयां एक-दूसरे पर बयानबाजी करते नजर आ रहे हैं। हालिया छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों ने अप्रैल 2010 में सीआरपीएफ के 75 जवानों को जिस तरह घेर कर मारा, यह सरकार को बताने के लिए काफी है। केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चलने वाली ऑपरेशन ग्रीन हंट की भी पोल खुल गई है। इससे साफ हो गया है कि नक्सली जंगल में घात लगाकर हमले करने में माहिर हो चुके हैं। लगातार नक्सली हमलों ने सरकार की आतंरिक सुरक्षा में सेंध लगाना शुरू कर दिया है, जो सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। दंतेवाड़ा की घटना के बाद केंद्र और राज्य सरकार को यह आभास हो जाना चाहिए की नक्सली सामान्य शत्रु नही है।
दलित वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी से जो हिंसक आंदोलन प्रारंम्भ हुआ था, वह आज हिंसा, फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार को रोकने के लिए सरकार पहले इसे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्या के रूप में देखती थी। इतना ही नहीं ये मानकर चलती थी कि जिन इलाकों में पिछड़ापन है और समाज का जो हिस्सा बेहद पिछड़ा है, उसके बीच में इनका प्रभाव होता है। तब सरकार इनके लिए कई तरह के विकास के कार्यक्रम चलाने की योजना बनाती थी, लेकिन देश के कई हिस्सों में ये देखा जा चुका है कि तमाम तरह की योजनाओं को लागू करने का दावा करने के बाद भी नक्सलवाद के प्रभाव को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है।
नक्लवाद को बढ़ावा देने में सरकार जिम्मेदार

नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टियों के नाम जरूर बदलते रहे हैं, तब सरकार भूमि सुघार कानून को लागू करने पर भी जोर देती थी, लेकिन जब से अमेरिकी परस्त भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू किया गया है तब से भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने की औपचारिकता तक खत्म कर दी गई है।
पिछले चुनाव के दौरान तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भूमि रखने की अधिकतम सीमा बढ़ाने का भी वादा किया था। स्थितियां इस कदर हो गई है कि 76 प्रतिशत लोग रोजाना बीस रूपये से कम पर गुजारा कर रहे हैं। जिन इलाकों में सरकार नई नीतियों के तहत नये-नये उद्योग विकसित करना चाहती है वहां तो भूखमरी की खबरें आई हैं।
इस तरह ये साफ तौर पर देखा जा सकता है कि सरकार नक्सलवाद को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश करने में लगी है। केन्द्र में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार थी तब ये कोशिश शुरू की गई थी कि सरकारी दस्तावेजों से नक्सलवाद को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्या भले माना जाए लेकिन व्यवहार में इसे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में पेश किया जाए। दरअसल अब तक सोचने का तरीका ये रहा है कि सत्ता में जो पार्टी जा रही है, वह अपने कार्यक्रमों को लागू करने पर जोर देगी. लेकिन स्थितियां अब बदल चुकी है. पार्टियां सत्ता चलाने जरूर जाती हैं लेकिन सत्ता उन्हें चलाती है. किसी भी पार्टी में अब इतनी ताकत नहीं बची है कि वह अपनी उन घोषित नीतियों को लागू कर सके जो सत्ता की नीतियों के विपरीत हो। सत्ता पर जिस वर्ग का वर्चस्व है, वह सत्ता को अपने तरीके से चलाता है. पार्टियां उसका अनुसरण करती हैं।

नक्सलवादः तथ्य

1. 1970 और 1980 के दशक में नक्सलवाद का प्रभाव पहले केवल बंगाल में लेकिन अब पूर्व के साथ दक्षिण राज्यों में भी खासा असर है।
2. फिलहाल देश के 15 राज्यों के 170 जिलों में सक्रिय।
3.देश के कुल क्षेत्रफल के 40 प्रतिशत हिस्से में फैला है.
4. 92,000 वर्ग किमी के विशेष त्रेत्र में सक्रियता ज्यादा
5. गश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्धप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश राज्य नक्सलियों से ज्यादा प्रभावित
6. रॉ के मुताबिक, नक्सलियों के टीम में 20,000 सशस्त्र कैडर औऱ50,000 नियमित कैडर हैं।
7. 2005 से 2008 के आकड़ों में नक्सली हमलों में 2772 लोग मारे गए। इसमें 1994 नागरिक और 777 सुरक्षा कार्मिक शामिल थे।
8. चार सालों में सीर्फ 839 नक्सली मारे गए।
9. केंद राज्यों को नक्सलियों से निपटने के लिए अर्द्धसैनिक बल देता है। लेकिन उसका हौसला भी पस्त है। जो अब छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के थानों का सुरक्षा में लग गए हैं।
10. नक्सली से निपटने के लिए 51,000 हजार जवान नक्सली क्षेत्रों में तैनात है। जिसमें सीआरपीएफ के हजारों जवान लगे हैं।
11 9 नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस के दो लाख पद खाली है।
12. वर्ष 2009 में 1597 घटनाएं नक्सली हिंसा दर्ज हुई है। इसमें 490 नागरिक मारे गए और 307 सुरक्षाकर्मी शहीद।
इन आंकड़ों में (केवल दंतेवाड़ा तक) 625 घचनाएं हुई, 200 नागरिक, 161 सुरक्षाकर्मी मकरे गए।

नक्सलवाद उदय के कारण

नक्सलवाद उदय के मुख्य कारण, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक शोषण से जुड़ा हुआ है। नक्सलियों का मानना है कि वर्तमान राजसत्ता नौकरशाहों, भष्ट राजनीतिज्ञों, पूंजीपतियों, भूस्वामियों और दलालों के हाथ में है। ये सभी मिलकर विशाल समूह वाले कृषक मजदूर एवं अन्य दलितों पर राज्य कर रहे हैं। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ नक्सली आंदोलन 1970 के मध्य और 1971 के बीच नक्सली हिसा के दृष्टि से अपने चरम पर था। इस अवधि में लगभग 4000 वारदातें हुई। लोग बेबस और लाचार थे जो नक्सली दमनचक्र के शिकार हो रहे थे। धारे-धीरे ये नक्सली देश के 170 जिलों में फैल गया है। देखा जाए तो नक्सलवाद अब तक का देश का अकेला सबसे बड़ा आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बन गया है। सच तो यह है कि खुद को नक्सलवाड़ी की पैदाइश बताने वाले छोटे और बड़े संगठन छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट में सक्रिय है।

नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि-
नक्सली समस्या से निपटने की हमारी रणनीति के दो स्तंम्भ होंगे- पहला प्रभावी पुलिस प्रति प्रक्रिया सुनिश्चित करना और दूसरा अलगाव के बोध को कम करना। प्रधानमंत्री के अनुसार पुलिस अनुक्रिया आवश्यक है क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्था कायम रखने के राष्ट्रीय दायित्व के लिए जरूरी है लेकिन प्रभावी पुलिस अनुक्रिया का अभिप्राय भारतीय शासन व्यवस्था को क्रूर बनाना नही है। अतः सर्वविदित है कि चार दशक से इस गंभीर समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने का सार्थक प्रयास अभी तक नही किया गया है जिससे आंतरिक सुरक्षा संबंधी चुनौती उत्पन्न हुई है।

ममता का नक्सली प्रेम

1967 में नक्सलीयों का जन्म माकपा के भ्रूण से हुआ, किंतु इस असहज सच्चाई ने ज्योति बसु, प्रमोद दास गुप्ता और हरे कृष्ण कोनार को अपनी संतति को क्रांति के औजार में इस्तेमाल करने से नही रोका। जब इंदिरा गांधी की सरकार बनी तो माओवादियों के खात्मे का काम शुरू हो गया। इतना ही नही 1971 से 1977 तक माकपा को निष्क्रय कर दिया गया। ममता बनर्जी कांग्रेस में तब सक्रिय हुई, जब नक्सली बिखर गए थे और माकपा शांति निंद्रा में चली गई थी। ममता अपनी सियासत को मजबूत करने के लिए समय-समय पर सड़कों पर संघर्ष और प्रदर्शन करना शुरू कर दी। धीरे-धीरे वह माकपा का प्रतिरोध करने वाली सबसे प्रबल शक्ति बन गई। पिछले सप्ताह लालगढ़ में ममता बनर्जी द्वारा आयोजित गैर राजनीति रैली में पश्चिमी मिदनापुर के माओवादियों की सक्रियता पर संसद में काफी बवाल मचा। प्रतिमंधित भाकपा(माओवादी) के प्रति उनके हमदर्दी भरे बयान और माओवादी नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत के संबंध में उनकी गलत बयान के कारण राज्यसभा समेत लोकसभा में जमकर हंगामा हुआ, जिसके कारण सप्रंग सरकार को काफी फजीहत झेलनी पड़ी।
इसे आप क्या कहेंगे यह तो ममता की सोची साझी साजिश थी जिसका फायदा उन्हें मिला। ममता ने माओवादी का समर्थन कर पश्चिम बंगाल में अपनी पैठ को और मजबूत कर ली है। लेकिन ममता जिस नेवला को दूध पिला रही है, वह एक दिन उनके लिए ही घातक हो जाएगा। सच तो यह हे कि पश्चिम बंगाल में हो रहे माकपा और ममता की लड़ाई में जीत तो माओवादी की है जिसका खमियाजा आम लोगों को उठाना पर रहा है।

अरूंधती राय का बयान-
नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय ने उस समय सब की आंखें खोल दी जब वो नक्सलियों का समर्थन करते नजर आए। अरूंधती राय का यह बयान देश तोड़ने वाला नक्सली को संजिवनी से कम नही था जहां नक्सली 2050 तक भारत पर कब्जा करना चाहते हैं। उनका बयान नक्सली को जायज ना ठहराकर अपनी ही सरकार की फजीहत करवाती है। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। सच तो यह है कि हर तरफ से आम जनता ही हिंसा के शिकार हो रहे हैं और राजनीतिक पार्टीयां अपनी-अपनी रोटी सेकने में लगे हैं।

आखिरकार देखा जाए तो नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों के हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य बहादुरी के प्रमाण अभी तक नही लिखे गए हैं। आखिर सवाल यह है कि हम नक्सलवाद के साथ खड़े हैं या खिलाफ में, अगर खिलाफ में खड़े हैं तो इतनी विनीत क्यों हैं। सभी जानते हैं कि माओवाद का विचार संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, ऐसे में उनके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। जो लोग नक्सलवाद को समाजिक, आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वे सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि कि अगर सरकार नक्सलवाद पर लगाम लगाना चाहती है तो उसे किसने रोक रखा है। क्या इस सवाल का जबाव किसी भारतीय राज्य के पास है। क्योंकि यह सवाल उस निर्दोष भारतीयों के परिजनों का है, जिसने लाल आतंक की भेंट में अपनों को खोया है।

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