Saturday, August 30, 2008

समय ने बदला रिश्ते की पहचान(रक्षाबंधन)

कल-कल करती बहती जीवन रूपी नदी में मधुर तरंगों की तरह आती लहरों की तरह हैं पर्व व त्योहार। भारत क्योंकि परंपरावादी देश है, यहां पर्वो और त्योहारों का अपना अलग महत्व है। व्यक्ति को व्यक्ति से जोडने और संस्कारों से बांधने का इससे बेहतर विकल्प और कोई हो भी नहीं सकता। यह रेशमी धागा हर साल आपको अपने रिश्ते के मूल्यों को याद कराने के लिए बांधा जाता है। रक्षा का अर्थ है सुरक्षा व बंधन है रिश्ता निभाने का संकल्प। केवल सहोदर रिश्तों की याद दिलाने वाला पर्व नहीं है यह, बल्कि पूरे देश को एक साथ जोडने में इस पर्व ने हमेशा ही सक्षम भूमिका निभाई है। पौराणिक मान्यता क अनुसार यह पर्व देवासुर संग्राम से जुडा है। जब देवों और दानवों के बीच युद्ध चल रहा था और दानव विजय की ओर अग्रसर थे तो यह देख कर राजा इंद्र बेहद परेशान थे। दिन-रात उन्हें परेशान देखकर उनकी पत्नी इंद्राणी (जिन्हें शशिकला भी कहा जाता है) ने भगवान की अराधना की। उनकी पूजा से प्रसन्न हो ईश्वर ने उन्हें एक मंत्रसिद्ध धागा दिया। इस धागे को इंद्राणी ने इंद्र की कलाई पर बांध दिया। इस प्रकार इंद्राणी ने पति को विजयी कराने में मदद की। इस धागे को रक्षासूत्र का नाम दिया गया और बाद में यही रक्षा सूत्र रक्षाबंधन हो गया।
इतिहास गवाह है
राखी का सबसे पुराना इतिहास हमें 300 ई.पू. में मिलता है। जब एलेक्जेंडर ने भारत पर चढाई की। राजा पुरु के शौर्य व पराक्रम से विदेशी एलेक्जेंडर अभिभूत था, तभी उसकी विदेशी पत्नी ने स्थानीय लोगों से राखी के बारे में सुना। तुरंत उनके दिमाग में एक विचार कौंधा और उन्होंने राजा पुरु को ससम्मान राखी भेजी। पुरु ने उस राखी को सिर माथे लगा उन्हें बहन माना और युद्ध क्षेत्र में इस राखी के बंधन की पवित्र भावना का पूरा ध्यान रखा।
हिंदुओं द्वारा रक्षाबंधन एक त्योहार के रूप में मनाया जाता रहा है। पुराने समय में इस बंधन से भाई-बहन के पावन रिश्तों की गांठ को और मजबूती प्रदान की जाती थी तथा अपनी रक्षा का वादा भी लिया जाता था। लेकिन चित्तौड की विधवा महारानी कर्मावती ने जब अपने राज्य पर संकट के बादल मंडराते देखे तो उन्होंने गुजरात के बहादुर शाह के खिलाफ मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेज मदद की गुहार लगाई और उस धागे का मान रखते हुए हुमायूं ने तुरंत अपनी सेना चित्तौड रवाना कर दी। इस धागे की मूल भावना को मुगल सम्राट ने न केवल समझा बल्कि उसका मान भी रखा।
गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने राखी के पर्व को एकदम नया अर्थ दे दिया। उनका मानना था कि राखी केवल भाई-बहन के संबंधों का पर्व नहीं बल्कि यह इंसानियत का पर्व है। टैगोर ने पूरे समाज में एकता और इंसानियत को बढावा देने के लिए रक्षा के बंधन को माध्यम बनाया। उनका विचार था कि समाज के सभी सदस्यों को एक-दूसरे का खयाल रखना चाहिए और दूसरों की मदद करनी चाहिए। यह उस समय की बात है जब भारत पर अंग्रेज शासन कर रहे थे और 1905 में उन्होंने बंगाल विभाजन का फैसला ले लिया था।
उस समय रबींद्रनाथ ने इस माध्यम से हिंदू और मुसलमानों के बीच भाईचारा बढाने, प्यार और एकता की भावना को पनपने देने के लिए राखी का सहारा लिया। इसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि हिंदू और मुसलमान एकजुट हों और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मोर्चा लें। उन्होंने इस पर्व को भाईचारे की भावना के प्रसार के लिए इस्तेमाल किया। उन्होंने देश के भिन्न संप्रदायों व जातियों के लोगों को राखी के माध्यम से एक नई सोच व दिशा दी। उन्होंने इसके जरिये धर्म, भाषा, वर्ग, समुदाय, लिंग और जाति के भेद को दूर करने की कोशिश की। राखी के धागों से पूरे भारत को एक करने का संदेश दिया। इसी भावना के तहत उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की।
इसमें संदेह नहीं कि सहोदर रिश्तों से ऊपर उठकर रक्षाबंधन की भावना ने हर समय और जरूरत पर अपना रूप बदला है। जब जैसी जरूरत रही वैसा अस्तित्व उसने अपना बनाया। केवल बहन ने भाई को ही नहीं, रक्षा के नाम पर पत्नी ने पति और हिंदू स्त्री ने मुसलमान भाई की कलाई पर इसे बांधा। इस नजरिये से देखें तो एक अर्थ में यह हमारा राष्ट्रीय पर्व है।
पहले और अब के रिश्ते
संबंधों की बात करें तो ये पहले जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। पहले हमारे जीवन का केंद्र बिंदु हमारा घर-परिवार ही हुआ करता था। अधिकतर संयुक्त परिवारों में लोग एक साथ रहते थे और कोई भी त्योहार पूरा परिवार एक साथ मिल कर मनाता था। किसी खास दिन का परिवार के सभी सदस्य बेसब्री से इंतजार करते थे। दरअसल रिश्तों और मानवीय भावनाओं को उत्सव के रूप में मनाना ही राखी है। अपने भाई-बहन के प्रति प्रेम और उसका खयाल रखना ही इसका आधार है। यह पूरे परिवार को एक साथ जोडता है और यही एकजुटता उत्सव के रूप में इस दिन मनाई जाती है।
आज समय और सोच ने इस रिश्ते को प्रभावित किया है। कहीं हत्या तो कहीं दुष्कर्म जैसी घटनाएं सुनने में आती हैं। रिश्तों की गरिमा खोती जा रही है। लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि कुछ अपवादों के कारण सारी मर्यादा, पवित्र भावना तथा अमूल्य रिश्ते को कटघरे में नहीं खडा किया जा सकता। फिर भी यह जरूरी था कि स्त्रियों को उनका पूरा हक मिले।
कानून पर एक नजर
सुप्रीम कोर्ट की वकील कमलेश जैन का कहना है कि यह ठीक है कि पुरुषवादी समाज में स्त्रियों की स्थिति हमेशा शोचनीय रही। पहले पिता, फिर पति और भाइयों पर वह आश्रित रही। इस स्थिति को देखते हुए यह कानून बना कि पैतृक संपत्ति पर बहनों का भी भाइयों के समान पूरा अधिकार हैं। यदि इस कानून की जमीनी सच्चाई पर गौर करें तो यह साफ दिखाई देगा कि इससे स्थितियां बेहतर होने के बजाय और बिगडी ही हैं। अकसर भाई खुशी से बहनों को कुछ नहीं देना चाहता। यहां तक कि कुछ घटनाएं ऐसी भी सामने आई जहां बंटवारे के डर से भाई ने बहन को मरवा या मार डाला। होता यह है कि यह बात बचपन से ही बच्चों को समझाई जाए तभी इसके अच्छा परिणाम सामने आ सकते हैं। क्योंकि यह समस्या मूलरूप से मानसिकता की है। अचानक यह कहना कि बहन को हिस्सा दो, किसी आघात से कम नहीं। दूसरी सच्चाई यह भी है कि कोर्ट-कचहरी में जाकर भाई के खिलाफ खडे होकर अपने अधिकार मांगने का साहस भी बहुत कम स्त्रियों में है। इससे जीवन भर के लिए संबंध खराब हो जाते हैं।
इस संबंध में नई दिल्ली की मनोचिकित्सक जयंती दत्ता का कहना है कि यदि आरंभ से ही बच्चों को इस दिशा में सही रूप से दिशा निर्देश दिए जाएं तो उसी दिशा में आपका दिमाग काम करेगा। अचानक कोई मुद्दा उठ कर ऐसा आए जो आपके लिए एकदम नया हो और उसके लिए दिमागी रूप से आप बिलकुल तैयार न हों तो आधात तो लगेगा ही। जब एक परिवार, एक माता-पिता, एक माहौल व एक थाली में खाकर भाई-बहन बडे होते हैं तो फिर संपत्ति के बंटवारे को लेकर विवाद क्यों? सब कुछ कल तक साझा था तो आज क्यों नहीं? अपनी सोच को विकसित करने की जरूरत है। हो सकता है कि आर्थिक रूप से बहन की आवश्यकताएं भाई से कहीं ज्यादा हों या यह भी हो सकता है कि वह इतनी समर्थ या उदार हो कि वह भाई और पिता से मदद न लेना चाहे। लेकिन वह चाहे या उसका हक देने के लिए भाई को अपनी ओर से तो तैयार रहना ही चाहिए।
आधुनिक संदर्भ
कामकाज के सिलसिले में या नौकरी व व्यवसाय के कारणों से भाई-बहन के बीच दूरियां बढी हैं। एकल परिवारों के बढते चलन तथा संयुक्त परिवारों के विलय से रिश्ते सिमट कर भाई-बहन तक रह गए हैं। पहले जहां एक ही छत के नीचे ताऊ, चाचा, दादा-दादी आदि अनेक रिश्ते होते थे, सभी के बच्चे भाई-बहन की श्रेणी में आते थे। यह पता ही नहीं चलता था कि कौन सगा है था कौन चचेरा। यह जुडाव बेहद मजबूत होता था। आज हालांकि संपर्क सूत्रों में आए क्रांतिकारी बदलावों से दूरियां सिमट गई हैं। एसएमएस, फोन, मेल और इंटरनेट के जरिये दूरियां काफी हद तक सिमट गई है। जब चाहा फ्लाइट पकडी और दूरियां नजदीकियां बन जाती हैं। केवल विदेशों में रह रहे भारतीय ही नहीं, विदेशी भी इस त्योहार का महत्व जानने समझने लगे हैं। पहले जहां महीनों पहले से अपने भाई को राखी भेजने के लिए डाक घर की मेहरबानी पर निर्भर रहना पडता था, वहीं अब इंटरनेट के जरिये जब चाहे मिनटों में अपने संदेश, राखी व तोहफे कुछ भी भेज सकते हैं। वेब कैमरा लगा कर जब चाहे चलते-फिरते जीते-जागते भाई-बहन को आमने-सामने देख सकते हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि उनके परिवार के लोग समुद्र पार बैठे हैं। जब जी चाहा जी भर देख लिया और मन भर बातें कर लीं। लेकिन आज समय के साथ रिश्तों के मायने भी बदले हैं। आज भाई ही नहीं बहन भी अपने कर्तव्यों को लेकर उतनी ही सजग है। आज वह पहले की तरह लाचार और कमजोर नहीं कि हर समय अपने भाई को अपनी रक्षा के लिए बुलाए।
बदली भूमिका
पहले जहां सुरक्षा का वादा भाइयों का ही होता था, वहीं आज बहन भी उतनी ही दृढता से भाई का साथ देने के लिए तैयार रहती है। आज की बहन पहले की तरह लाचार और बेबस नहीं। वह पढी-लिखी और सक्षम है। रिश्तों की बखूभी समझ उसे है, कानून और अधिकारों के प्रति वह पूरी तरह सजग है। वह इतनी परिपक्व है कि उसे जरूरत नहीं तो वह उदारता से अपने भाइयों के लिए सब अधिकार स्वेच्छा से छोड देती है।

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