Tuesday, September 2, 2008

मानसिक रोग-बचाव

बीमारियों से बचने के लिए हम शरीर का बहुत ध्यान रखते हैं। तरह-तरह के उपाय करते हैं। सुबह उठना, सैर करना, दौड़ना, व्यायाम करना, योग करना, ठहाका लगाना और पता नहीं क्या-क्या। आजकल लोग दिनभर के खाने-पीने पर विशेष ध्यान रखता है। जो नहीं रखते वो परेशान होते हैं, और शारीरिक कष्ट झेलना पडता है। यही कारण है कि कोई भी समाचारपत्र हो या टीवी चैनल, स्वास्थ्य संबंधी चर्चाओं से भरे पड़े रहते हैं। माता-पिता भी बच्चे को अच्छे से अच्छा खिलाने के फेर में रहते हैं। कभी तो बच्चे के साथ दूध पिलाने की जोर-जबरदस्ती की जाती है। अभी पिछले सप्ताह अमेरिका की एक खबर मे यह पता चला है कि वहां के स्कूली छात्र-छात्राएं ब्रेक फ्रूड इसे खाकर मोटे होते जा रहे हैं जिससे यह बीमारी उनकी राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। असल में मोटापे से कई रोगों की शुरुआत होती है। शारीरिक रोग होने पर लोगों को अनेक कष्टों से गुजरना पडता है । फिर भी जीभ का स्वाद चंचल है, वो हमेशा तरह-तरह के पकवान खाने के चक्कर में रहता है। कारण एक ही है, हम एक हद के बाद अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर पाते। हम सब जानकर भी अनजाने बन जाते हैं। परिणामस्वरूप बीमार पड़ जाते हैं। और फिर भागते हैं डाक्टर के पास।सवाल अनेक हैं कि हम मन और दिमाग के स्वास्थ्य के लिए क्या करते हैं? क्या हम इनका देखभाल सही तरह से करते हैं ? शायद नहीं। l तभी तो इसका सीधा असर शरीर पर पड़ता है वहीं दिमागी बीमारियां खुद को नहीं दूसरों को अधिक तंग करती हैं। क्या आपने कभी अत्यधिक गुस्सा करने वाले, जरा-जरा सी बात पर रोने वाले, हर किसी से घृणा करने वाले, ऊंची-ऊंची आवाज में बोलने वाले, बात-बात पर लड़ने वाले, छोटी-सी बात पर परेशान हो जाने वाले या फिर डिप्रेशन में रहने वाले लोगों को स्वयं अस्पताल जाकर अपना इलाज करवाते देखा है? नहीं, बिल्कुल नहीं। जबकि ये भी एक किस्म की बीमारियां ही हैं।आधुनिक जीवनशैली में मानसिक समस्यायें बढ़ती जा रही हैं। परिणाम सामने है। वैवाहिक जीवन तबाह हो रहा है। तलाक बढ़ रहे हैं। छोटी उम्र में बच्चे मां-बाप से अलग हो रहे हैं। मगर आदमी अस्पताल या साइक्लोजिस्ट के पास तभी जाता है जब उसके परिवार वाले उसे खुद लेकर जाते हैं क्योंकि कोई पागल खुद को कभी पागल नहीं कह सकता है? तभी तो बाल यौन शोषण, बच्चों की हत्या, अप्राकृतिक यौन संबंध, हिंसा फैलाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये विकृतियां आधुनिक युग की देन हैं। मगर क्या कभी किसी पढ़े-लिखे समझदार को भी इसका इलाज करवाते सुना है? नहीं। कारण साफ है कि कोई भी इस पहल को नही कर सकता है ।

आए दिन यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। हर दूसरा आदमी मानसिक रूप से ग्रसित रहने लगा है अपनी जिंदगी को तनाव में जीने के लिए मजबूर है फिर भी हम उतने चिंतित नहीं हैं जितना होना चाहिए। हम गठिला शरीर बनाने की बात तो अक्सर करते हैं मगर अपनी परेशानियों को दरकिनार कर रोगों को हावी होने पर मजबूर करते हैं। जबकि बेहतर समाज के लिए मनुष्य के शरीर से अधिक उसके मन-मस्तिष्क के स्वस्थ होने की आवश्यकता है। तभी समाज का सही सकारात्मक विकास संभव है। और इसमें रहने वाले आदमी तभी सुरक्षित हैं। सुख-शांति का सही एहसास भी स्वस्थ मस्तिष्क से ही संभव है। लेकिन हम दिमाग के स्वास्थ्य की चिंता बिल्कुल नहीं करते।

आज के युग में मनोरंजन में व्यवसाय के नाम पर मन-मस्तिष्क को पहुंचने वाली सामग्री और, जहरीली, अनैतिक असमाजिक होती जा रही है। परिणाम है हम मानसिक रूप से और अधिक बीमार होते चले जा रहे हैं। हम पर पाश्विक प्रवृत्ति हावी हो रही है और हम अमानवीय होते जा रहे हैं। अकेलापन, घबराहट, मानसिक विकृतियां, चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन बढ़ता चला जा रहा है। हर परिवार में कोई न कोई किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त है। आज का आदमी शांत नहीं है, सुख का भोग नहीं कर रहा। सिर्फ दौड़ रहा है। परिवार बिखर रहे हैं। समाज उजड़ रहा है। जीवन बाजार बन चुका है। हमने शरीर के व्यायाम के लिए तो कई उपाय ढूंढ़ लिये। जिम, योग, व्यायामशाला और जाने क्या-क्या खोल दिये। लेकिन मानसिक ऊर्जा के संतुलन के लिए हम मौन हैं। आज के सफल आदमी को शारीरिक व्यायाम करते दिखाया जाता है। शारीरिक आकर्षण वाले आज हमारे समाज के हीरों हैं। खेल की दुनिया, फिल्मी दुनिया हर जगह छायी हुई है। सभी इन स्टारों को देखकर शरीर के रख-रखाव पर जोर देते हैं। और क्यूं न करें, उनका आदर्श भी तो यही सब है । मगर क्या इन आदर्शों को कोई मानसिक कार्य करते सुना है? नहीं। देखा-देखी हर घर में जिम खोलना फैशन बन गया है। हम सिर्फ शरीर बना रहे हैं अर्थात हम अपने समाज को अखाड़ा बना रहे हैं। बहुत अधिक मन बेचैन हुआ तो शांति के लिए लिए वही मंदिर ,मस्जिद या कोई शांति स्थल । वहां भी लोगों को चैन नही है ।आज के समय में कला, संगीत, नाटक, साहित्य, गायन भी लुप्त होते जा रहे हैं तभी तो इसे भी बाजारू बना दिया गया है। परिवार में मां-बाप अपने बच्चों को पढ़ने की सामग्रियों कभी नहीं देखते। वो तो खुद टीवी से चिपके रहते हैं। कहावत है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है। मगर यह भी सत्य है कि शरीर की अधिकांश बीमारियां दिमाग के कारण होती है। मस्तिष्क स्वस्थ होगा तो शरीर अपने आप स्वस्थ रहेगा। अन्यथा सारे बिना दिमाग के हो जाएंगें तो कल्पना करें क्या होगा ? तभी तो जरूरत है समय के साथ मन को शांत रखने की जिससे हम सभी इस बीमारी से बच सकते हैं ।

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