Saturday, September 20, 2008

ये कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम

ये कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम


जिंदगी इतनी सस्ती हो गयी है जहां सिर्फ दिखते हैं आतंक का मंजर जिसके चपेट मे देश के मासूम लोग । हम बेबस और लाचार हो चुके हैं इस आतंक से जहां लोगों के आंखों में आंसू , बहते हैं खून और हर ओर आंसुओं का सैलाब। टेलीविजन पर रोते हुए चेहरे। अखबारों में खून से लथपथ, चीखते बिलखते चेहरे। हर जगह देखा तो दहशत ही दहशत मानो लोग डर के साये में जी रहे हैं भला ऐसे माहौल में कोई भी व्यक्ति सामान्य कैसे रह सकता।
हर कोई दिल्ली के जज्बे को सलाम कर रहा है तो कोई इसकी दिलेरी की दाद दे रहा है। सडकों पर अपनो का खून बह रहा है तो हर घर से खुशियों के रंग को कोई चुरा कर ले जा रहा है छायी हुई है तो सीर्फ उदासी फिर भी दाद देनी होगी दिल्ली की दिलेरी की कि जिसने आतंकवाद के सामने सिर नहीं झुकाया और संभल गई। ये सभी मन बहलाने की बातें लगती है। जिनके घर के चिराग बुझ गए, किसी ने अपना बेटा खो दिया, किसी ने अपना पति खो दिया तो किसी ने अपना पिता खो दिया, कई अब भी लापता हैं और कई अपने घायल परिजनों को लेकर अस्पताल दर अस्पताल भटकने को मजबूर हैं जो आज तक नही संभल पाए हैं , तो कहां संभल गई है दिल्ली ? शायद वो अब जिंदगी भर नहीं संभल पाए क्योंकि तीन साल पहले हुए धमाकों के पीड़ित भी अभी तक कहां संभल पाए हैं।
दिल्ली दिलेर नहीं है, शायद असंवेदनशील है। शनिवार को धमाका। रविवार को छुट्टी। सोमवार से सामान्य ज़िंदगी मानो कहीं कुछ हुआ ही नहीं। आखीर आप इसे क्या कहेगें, आतंकवाद पर दिल्ली की जीत , इससे क्या फ़र्क पड़ता है। इससे उनका दर्द तो कम नहीं हो जाता, धमाकों ने जिनकी जिंदगी तबाह कर दी है।
हम बारूद की ढेर पर खडे है जहां जिंदगी कब है और कब नहीं कोई नही जानता बस सब कुछ चल रहा है तो भगवान भरोसे । वह दिन मानो हमारे लिए मुश्किल का वक्त था जहां घर से पापा एंव मम्मीजी का फोन प्रत्येक 15 मिनट पर बार बार आता रहता था और सीर्फ एक ही सवाल होता , कहां हो बेटा ? तुम ठीक तो हो ना , मेरी आवाज सुनते ही एक पल के लिए राहत की सांस लेती है कि चलो अभी तक उनका बेटा सुरक्षित है । तब वह गहरी सांस भरते हुए कहती कहीं मत जाना , फोन करते रहना और अपना ख्याल रखना । यह स्थति पुरे दिल्ली और एनसीआर की है। जहां हर आदमी डरा हुआ है क्योंकि हम सभी डरे हुए शहर में डरे हुए लोगों के बीच हम रह रहे हैं। पता नहीं कब कहां क्या हो जाय ? हम सभी इतने डर गये है कि बाजार में कुछ खरीदने में भी डर , मानो खुशियाँ भी इस डर में खो चुकी हो और जी रहे तो संगीनों के साए में डरते हुए। जहां केवल डर, डर और सिर्फ डर ?
आतंक के साये में जहां देखता हूं दहशत नजर आ रही है समझ में नही आता आखिर यह क्या हो रहा है , क्यों हो रहा है और कौन कर रहा है आखिर उसे क्या चाहिए, मासूमों की जान से खेलकर , क्या मिल रहा है उसे । हर जगह खुशियाँ क्यों मातम में बदल रही है जहां चेहरों पर हंसी बन गयी है सीर्फ उदासी । हर जगह देख रहे है तो बारूद ही बारूद जहां लोगों की सुनाई दे रही है तो सिसकियों से भरी आह । मरने वालो को कौन देख रहा है न प्रशासन और नही सरकार आखिर कब तक मरते रहेगें ये निर्दोश लोग क्योंकि प्रशासन हो या सरकार मरने वालों की लगा देते है किमत एक लाख या पांच लाख , क्या ये किमत इनकी जिंदगी से ज्यादा है बस यही तो आज तक होता आया है। अपनो की यादो में लोगों की आंसू सूख गये हैं आंखों से ,आवाज गुम हो गयी है तो दूर-दूर तक आशा की कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड रही है, फिर भी हम सभी जिंदगी को जीये जा रहे हैं पता नही किसके सहारे। आखिर कैसी जिंदगी जी रहे हैं हम.............।

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