Tuesday, August 2, 2011

मोदी की प्रशंसा बनी वुस्तानवी के लिए गले की फांस


शाहिद ए चौधरी गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम (कुलपति) पद से बर्खास्त कर दिया गया है। वस्तानवी का कसूर यह था कि उन्होंने इस साल जनवरी में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी थी, लेकिन असल कारण यह प्रतीत होता है कि दारुल उलूम में जो अंदरूनी उठापटक चल रही है, उसमें एक गुट वस्तानवी को पसंद नहीं करता था। शायद यही वजह है कि वस्तानवी के समर्थक बर्खास्तगी को अदालत में चुनौती देने का मन बना रहे हैं।

यह बात हास्यास्पद और विस्मयकारी लगती है कि भाजपा समेत कुछ संगठन और व्यक्ति वुस्तानवी साहब के मोदी की प्रशंसा करने वाले तथाकथित वक्तव्य को लेकर उनका समर्थन और प्रशंसा कर रहे हैं और उन्हें प्रगतिशील बता रहे हैं। जब कोई दूसरा मुसलमान धर्मगुरु दिग्विजय सिंह या यूपीए की प्रशंसा में कोई भी बयान दे, तो वे उन्हें न केवल सांप्रदायिक घोषित कर देते हैं, बल्कि उनकी भरपूर निंदा करते हैं और यह मशविरा देने से भी नहीं चूकते कि मुसलमान धर्मगुरुओं को राजनीतिक मुद्दों पर बयानबाजी नहीं करनी चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुस्लिम मदरसों विशेषकर अति प्रभावी दारुल उलूम देवबंद में आधुनिक जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए सुधार की जबरदस्त गुंजाइशें हैं। इसलिए जब वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद का मोहतमिम बनाया गया था तो यह उम्मीद जाग उठी थी कि इस्लामी मदरसों में सुधार आने लगेगा, लेकिन वस्तानवी के मोहतमिम बनते ही दारुल उलूम की अंदरूनी सियासत अपना रंग दिखाने लगी और जैसे ही वस्तानवी का एक विवादास्पद बयान सामने आया तो उन्हें हटाने की मुहिम ने जोर पकड़ लिया। कुल मिलाकर हुआ यह कि एक काम जो सुधार की तरफ ले जाने के लिए शुरू हुआ था, उस पर असमय ही विराम लग गया और मुस्लिमों का दुर्भाग्य ज्यों का त्यों बना रहा।

अगर गौर से देखा जाए तो वस्तानवी के तथाकथित बयान में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था और न ही उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए कोई क्लीन चिट दी थी। गौरतलब है कि वस्तानवी ने इस साल जनवरी में कहा था कि समय आ गया है कि मुस्लिम वर्ष 2002 के गुजरात दंगों की भयानक यादों को भूलें और आगे बढ़ें, क्योंकि फिलहाल गुजरात में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जिस पर चिंता की जाए। जाहिर है, इस बयान को मोदी के लिए क्लीन चिट नहीं कहा जा सकता, जिनकी सरकार 2002 में दंगों में नियंत्रण पाने में असफल रही थी। वस्तानवी का यह बयान केवल इतना महत्व रखता है कि मुस्लिमों को व्यावहारिक होना चाहिए और आधुनिक दुनिया की जरूरतों को समझते हुए पिछली भयावह यादों को भूलकर आगे तरक्की के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए। लेकिन उनके इस बयान को उनके विरोधी गुट ने अपने सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल किया। नरेंद्र मोदी और गुजरात के दंगे मुस्लिमों के दिलो-दिमाग में भावनात्मक टीस हैं। इसी जज्बे का लाभ उठाते हुए वस्तानवी के विरोधियों ने यह प्रचारित किया कि वे गुजरात के होने के नाते नरेंद्र मोदी के समर्थक हैं। इसलिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त इस्लामी मदरसे के मोहतमिम पद से इस्तीफा दे देना चाहिए, लेकिन वस्तानवी के समर्थकों को यह बात पसंद नहीं थी और उन्होंने उन पर इस्तीफा न देने का दबाव बनाया। इसका नतीजा यह निकला कि कार्यकारिणी ने वस्तानवी को बर्खास्त कर दिया।

इसमें किसी को शक नहीं हो सकता कि वस्तानवी इस्लामी परंपरा को दिलोजान से मानने वाले और उस पर अमल करने वाले व्यक्ति हैं। साथ ही उन्होंने आधुनिक शिक्षा भी प्राप्त की है। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे मुस्लिम भावनाओं से अवगत नहीं या उनका सम्मान नहीं करते। बात सिर्फ इतनी सी है कि उन्होंने जो व्यावहारिक बयान दिया, उस पर उनके विरोधियों ने अपनी सियासी रोटियां सेंक लीं और फिलहाल के लिए दारुल उलूम देवबंद को प्रगति के पथ पर जाने से रोक दिया। दरअसल, दारुल उलूम देवबंद पर और जमाते उलेमा हिंद पर हुसैन अहमद मदनी के जमाने से ही मदनी परिवार का कब्जा है, जिसे वह किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। एक समाजिक और सियासी पार्टी के रूप में जमाते उलेमा हिंद की देवबंदी मुस्लिमों पर गहरी पकड़ है। यह पकड़ दारुल उलूम देवबंद और उससे संबंधित देश भर में चल रहे मदरसों की वजह से है। इसी की वजह से मदनी परिवार के सदस्यों को राज्यसभा में प्रवेश का अवसर भी मिलता रहता है। अब भला जिस संस्था से इतने सियासी और समाजी और शायद आर्थिक फायदे हों, उसे कौन छोड़ना चाहेगा? इसलिए जब मदनी गुट के विरोधी इस बात में कामयाब हो गए कि वस्तानवी दारुल उलूम के मोहतमिम बन गए तो यह लाजमी था कि मदनी गुट उनका विरोध करता। विरोध करने का मौका गुजरात संबंधी बयान से मिल गया। साथ ही यह भी प्रचारित किया गया कि वस्तानवी दारुल उलूम देवबंद के छात्र या शिक्षक नहीं रहे हैं। लेकिन वस्तानवी के जाने से दारुल उलूम देवबंद की समस्याओं पर विराम नहीं लगता है।

वस्तानवी के समर्थक उनकी बर्खास्तगी के खिलाफ अदालत में जाने का मन बना रहे हैं और उन्हें समाजवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त है। ध्यान रहे कि समाजवादी पार्टी की नजर हमेशा मुस्लिम वोटों पर रहती है और इसलिए वह अपने आपको देवबंद की राजनीति से अलग नहीं रख सकती। हालांकि वस्तानवी ने स्वयं अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ अदालत में जाने से इनकार किया है, लेकिन उनके समर्थकों का कहना है कि वे पहले की तरह अपना मन बदल लेंगे। जब पैनल की रिपोर्ट आई थी तो वस्तानवी ने अपना इस्तीफा देने का मन इसलिए बदल लिया था कि वे एक दोषी के रूप में अपना पद नहीं छोड़ेंगे। अब बर्खास्तगी पर तो उन्हें अपनी बात कहने का मौका भी नहीं दिया गया, इसलिए उनके समर्थकों को उम्मीद है कि वे अदालती कार्रवाई में उनका साथ देंगे। अगर वस्तानवी साथ नहीं भी देते हैं तो जनहित याचिका दायर करने के लिए प्रासंगिक साक्ष्य जुटाने का प्रयास कर रहे हैं।

बहरहाल, इसका नतीजा क्या होता है, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन इतना तय है कि देवबंद की सियासी लड़ाई में न केवल धर्मिक शिक्षा का नुकसान हो रहा है, बल्कि मदरसे जो आधुनिक जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं, उन्हें रूढि़वादिता के मलबे में ही दबाने का प्रयास किया जा रहा है। यह न मुस्लिमों के भविष्य के लिए और न ही देश के लिए बेहतर है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि वस्तानवी की बार्खास्तगी को रद्द किया जाए और दारुल उलूम देवबंद को आधुनिक शिक्षा का ऐसा केंद्र बनाया जाए, जिसकी जड़ें इस्लामी परंपरा से अलग न हों।

यहां पर यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि दारूल उलूम देवबंद की 30 मई 1866 में स्थापना के बाद से यह परंपरा रही है कि उसके किसी मोहतमिम ने राजनीतिक विवादों में पड़कर कोई बयानबाजी नहीं की है। हमारी राय में एक धर्मनिरपेक्ष लोकशाही में यह और भी जरूरी है कि धर्मगुरु का संबंध चाहे किसी भी आस्था या संप्रदाय से क्यों न हो, उनके आचरण की सभ्यता यही होनी चाहिए। वुस्तानवी साहब को भी इसी का निर्वाह करना चाहिए था। यह न कर पाने की वजह से ही उनके विरोधियों को यह अवसर मिल गया। बहरहाल, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्थाएं व्यक्तियों से सदैव बड़ी होती हैं। उनके वर्ग और गौरव को बनाए रखने के लिए हर त्याग और बलिदान के लिए सभी को तैयार रहना चाहिए।

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