Tuesday, August 2, 2011

हिना की खुबसूरती के आगे, गायब हुआ असल मुद्दा


पाकिस्तान की पहली महिला विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की बातचीत का शालीन लहजा किसी को आकर्षित कर सकता है। 34 साल की उम्र में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यदि अपने देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय की बागडोर उन्हें थमाई तो निश्चय ही उनकी प्रतिभा का कायल होकर ही। हिना 2009 में नेशनल असेंबली में बजट भाषण करने वाली सबसे कम उम्र की और पहली मंत्री भी बन चुकी हैं।

हमारे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा एवं हिना खार के बीच दो पीढि़यों का अंतर है, पर हैदराबाद हाउस में बातचीत की शुरुआत से पूर्व एवं बातचीत के बाद संयुक्त पत्रकार वार्ता में उम्र का यह अंतर कतई नहीं झलक रहा था। हिना खार ने अपने वक्तव्य में संयम, व्यवहार कौशल और कूटनीतिक शालीनता का परिचय दिया। उन्होंने एसएम कृष्णा के व्यवहार, बातचीत के प्रति दृष्टिकोण और उसे परिणामकारी बनाने की संकल्पबद्धता की प्रशंसा करते हुए कहा कि मैं पहले से ज्यादा विश्वस्त हूं कि यह प्रक्रिया उपयोगी, लाभकारी एवं परिणामकारी होगी।

कृष्णा ने अपने बयान में कहा कि मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूं कि हमारे संबंध बिल्कुल सही पटरी पर हैं। हमें कुछ दूरियां तय करनी हैं, लेकिन खुले मन एवं रचनात्मक नजरिए से, जो बातचीत के इस दौर में दिखाया गया है। हिना खार ने कृष्णा की बात का यह कहते हुए समर्थन किया कि भारतीयों और पाकिस्तानियों की नई पीढ़ी ऐसा रिश्ता देखेगी, जो उम्मीद के अनुसार हमने पिछले दो दशकों में अनुभव किया है, उससे बदला हुआ होगा। उन्होंने तो सहयोग के एक नए युग की भी संभावना भी व्यक्त कर दी, लेकिन उम्मीदों और विश्वास के इन शब्दों के चमचमाते महल को आधार देने के लिए समझौते का कोई स्तंभ नहीं था। मीडिया से बचने के लिए बिना सवाल जवाब के अपना-अपना बयान ये लोग कह गए।

ये संयुक्त वक्तव्य मुंबई हमला संबंधी मुकदमा एवं मादक द्रव्य नियंत्रण सहित आतंकवाद विरोधी उपायों, वाणिज्य एवं आर्थिक सहयोग, वुल्लर बांध/तुलबुल परियोजना, सर क्रिक, सियाचिन, विश्वास बहाली उपायों सहित शांति एवं सुरक्षा, जम्मू-कश्मीर, मित्रतापूर्ण आदान-प्रदान को प्रोन्नति, मानवीय मुद्दों पर बैठकों की समीक्षा एवं संतोष प्रकट करने की बात है, लेकिन किसी को नहीं पता कि इनमें दोनों ओर के कश्मीर के बीच सामान्य व्यापार एवं मित्रवत आदान-प्रदान को छोड़कर शेष मुद्दों पर बातचीत कहां पहुंची है। वास्तव में जम्मू कश्मीर के दोनों ओर व्यापार की अवधि सप्ताह में दो दिनों से चार दिन करने, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद एवं पूंछ-रावलकोट रास्ते पर ट्रकों की आवाजाही भी इसी अनुसार चार दिनों करने तथा पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के लिए भी दोनों मार्गो से बसों का आवागमन सुनिश्चित करने के अलावा कुछ भी ऐसा सामने नहीं आया, जिसे बतचीत में भेद न कहा जा सके। परिवार की पृष्ठभूमि तथा राजनीति एवं मंत्री पद का अपना अनुभव उन्हें इतना संतुलित बना चुका है कि उनके मुंह से ऐसी कोई बात नहीं निकल सकती थी, जो भारतीयों को नापसंद आए।

हालांकि हिना पिछले दो दशकों में संभवत: पहली विदेश मंत्री हैं, जिन्होंने अपने वक्तव्य में कश्मीर का जिक्र नहीं किया। बातचीत में तो कश्मीर अवश्य आया, क्योंकि वह समग्र बातचीत का एक विषय है, पर पत्रकारों के सामने दिए गए वक्तव्य में इसका उल्लेख न करना महत्वपूर्ण है। दिल्ली आने के बाद पाकिस्तान उच्चायोग में हिना खार ने कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत नेताओं सैयद अली शाह गिलानी एवं मौलवी मीरवाइज उमर फारुख से मुलाकात करके यह संदेश तो दे ही दिया कि भारत के साथ किसी बातचीत में वे कश्मीर पर पाकिस्तान के रुख की अनदेखी नहीं कर सकतीं। सच कहें तो हुर्रियत नेताओं से मिलना उनके द्वारा पाकिस्तान की सोच में बदलाव तथा नए युग की शुरुआत की कामना के विपरीत था। हालांकि हमें इसे ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है। बतौर विदेश मंत्री हिना के सामने इस समय एक साथ कई चुनौतियां हैं।

ओसामा बिन लादेन के एबटाबाद में मारे जाने के बाद से दुनिया के प्रमुख देशों में पाकिस्तान के प्रति नाराजगी तथा अविश्वास काफी बढ़ा है। सबसे बड़े वित्तपोषक अमेरिका के साथ उसके रिश्ते असामान्य हैं। सैनिक सहायता में कटौती की गई है और बराक ओबामा प्रशासन पर पाकिस्तान को मिलने वाली अन्य सहायता राशि में भी कटौती का दबाव बढ़ रहा है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वहां पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी, होगी या नहीं, यह भी बहुत बड़ा प्रश्न बनकर खड़ा है। इन सबके साथ एक युवा नेता के रूप में पश्चिमी देशों में हिना खार को अपनी छवि भी एक आधुनिक, प्रगतिशील और भविष्य की ओर देखने वाली नेता की बनानी है। जरदारी और गिलानी ने हिना को विदेश मंत्री बनाते समय अमेरिका में उच्च शिक्षा के कारण बने रिश्ते को भी ध्यान में रखा होगा। वैसे भी भारत द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से विदेश मंत्री के तौर पर उनकी पहली यात्रा थी। इसमें न वे आगे बढ़ने का जोखिम उठा सकती थीं, न कश्मीर जैसे मुद्दे पर कोई कड़ा बयान देकर बातचीत की गाड़ी में अवरोध डाल सकतीं थीं।

अमेरिका सहित पश्चिमी देश हर हाल में पाकिस्तान को भारत के साथ बातचीत करते देखना चाहते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिना का दौरा किसी ठोस परिणाम की ओर बढ़ने की बजाय बातचीत आगे जारी रखने का रास्ता बनाने की यात्रा थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह बातचीत किसी मुद्दे को सुलझाने की बजाय दुनिया को यह संदेश देने के लिए है कि दोनों देशों के बीच कोई युद्ध नहीं होने वाला है। सच कहा जाए तो बातचीत के पीछे छायावादी शब्दावलियों से आगे कोई सुस्पष्ट लक्ष्य नहीं है। जब कोई साफ लक्ष्य नहीं होता और बातचीत स्थिरांक पर टिकी रहती है तो विश्वास बहाली उपाय जैसी शब्दावली काम में आती है।

हिना खार कहती हैं कि हमने इतिहास से सीख ली है, लेकिन इतिहास के बोझ से दबे नहीं हैं। हम एक अच्छे मित्रवत पड़ोसी के रूप में आगे बढ़ सकते हैं, जिसका एक-दूसरे के भविष्य में दांव है और जो यह समझता है कि दोनों देश का क्षेत्र के प्रति एवं क्षेत्र के अंदर क्या दायित्व है। भारत सहित संपूर्ण दक्षिण एशिया के हित में यही है कि पाकिस्तान इतिहास से सीख ले और अपने देश, पड़ोसी तथा क्षेत्र के प्रति दायित्व को समझे। ऐसा हो तो निश्चय ही एक नए युग की शुरुआत होगी। किंतु इन शब्दों को कर्म में परिणत करना होगा। परंपरागत खांचे में उलझे वर्तमान पाकिस्तान से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।

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